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________________ .३६२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अंतरं ६१६. अंतराणुगमेण दुवि० । ओषेण पंचणा-छदंस०-चदुसंज०-भय-दु०-तेजा०क०-वण्ण० ४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. पंचवड्ढि०-हाणिबंधंतरं केवचिरं कालादो ? ज० ए०, उ० असंखेंजा' लोगा। [ अवडि० एसेव भंगो।] अणंतगुणवड्डि- हाणिबंधतरं ज० ए०, उ० अंतो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० अद्धपोग्गल । तित्थय०२ पंचवड्डि-हाणि-अवढि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । एवं अवत्त । णवरि जह. अंतोमु० । अणंतगुणवड्डि-हाणि० ज० ए०, उ० अंतो० । एदेण कमेण भुजगारभंगो कादव्यो । एवं याव अणाहारए त्ति णेदव्वं । विशेषार्थ-यहाँ जितने पद कहे हैं उन सबका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा प्रारम्भकी पाँच वृद्धि और पाँच हानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवं भागप्रमाण, शेष दो वृद्धि-हानियाका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत, अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल सात-आठ समय और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट काल एक समय होनेसे उक्तप्रमाण कहा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक यथायोग्य एक जीवकी अपेक्षा काल घटित कर लेना चाहिए। अन्तर ६१६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी पाँच वृद्धि और पाँच हानिबन्धका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अवस्थितपदका यही भङ्ग है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार अवक्तव्य बन्धका भी अन्तरकाल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है.। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उसी क्रमसे भुजगारप्ररूपणाके समान अन्तरकाल करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ-यह सम्भव है कि पाँच ज्ञानावरणादिकी पाँच वृद्धि और पाँच हानि एक समक्के अन्तरसे हों और अनुभागबन्धके परिणामोंके अनुसार असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे हों, इसलिए इन वृद्धियों और हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका एक समय अन्तर तो स्पष्ट है पर उत्कृष्ट अन्तर जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है, उसका कारण यह है कि ये दोनों यदि नहीं होती हैं तो अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक ही नहीं होती, १. ता. प्रतौ पंचंत०।उक्क० हाणि अवन्त बंधतरं केवचिरं कालादो होदि ? जद्द० एग उक्क.] असंखेजा, आ० प्रतौ पंचंत० उक्क० हाणी बंधतरं केवचिरं कालादो १ ज० ए०, उ० असंखेजा इति पाठः। २. ता. आ० प्रत्योः अद्धपोग्गलः । एवं पंचवड़ि-हाणि अबडि• एसेव भंगो तित्थ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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