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________________ भुजगारबंधे अप्पाबहुअं ५४९. णिरएसु धुवियाणं सव्वत्थोवा अवढि० । अप्प० असंखेंगु० । भुज. विसे । थीणगिद्धिदंडओ ओघं । णवरि अवढि० असंखेंअगु० । मणुसाउ० आहारसरीरभंगो। सेसाणं पगदीणं ओघं सादभंगो। एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सत्तमाए दोगदि-दोआणु०-दोगो० थीणगिद्धिभंगो। ५५०. तिरिक्खेसु धुविगाणं सव्बत्थोवा अवढि० । अप्प० असंगु०॥ भुज विसे । सेसं ओषं । पंचिंदियतिरिक्ख० धुविगाणं तिरिक्खोघं । सेसाणं पि एवमेव । णवरि अवढि० जम्हि अणंतगुणं तम्हि असं०गुणं कादव्वं । पंचिंतिरि०पज्जत्त-जोणिणीसु ओरालि. सादमंगो। पंचिंतिरि०अपज्ज. धुविगाणं णेरइगभंगो । सेसाणं सव्वत्थोवा अवढि० । अवत्त० असं०गु० । [ अप्प. असंगु०।] भुज० विसे । एवं सव्वअपज्ज०एइंदि०-विगलिं०-पंच कायाणं च । ५५१. मणुसेसु पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरा-तेजा-क०वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. सव्वत्थोवा अवत्तः। अवहि० असं०गु० । अप्प० असंगु० । भुज० विसे० । दोआउ०-वेउव्वियछ०-आहार०२-तित्थ० आहार ___५४६. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यायुका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके सातावेदनीयके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें दो गति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है। - विशेषार्थ यहाँ स्त्यानगृद्धिदण्डकसे स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क, ये आठ प्रकृतियाँ ली गई हैं। ___५५०. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। पञ्चन्द्रियतिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भी इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि जहाँ अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे कहे हैं, वहाँ असंख्यातगुणे कहना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय तियश्च योनिनियोंमें औदारिकशरीरका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। पञ्चन्द्रियतियचअपर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थापरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । . ५५१. मनुष्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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