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________________ बंधसण्णियासपरूवणा १२१ सैसं ओघं । एवं विभंग। २६१. आभिणि-सुद०-ओधि० खविगाणं पगदीणं अरदि-सोगाणं च ओषं संजमपाओग्गाणं च । साद० ज० बं० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दु०पंचिं०-समचदु०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्य०-तस०४-सुभग-सुस्सरआदे-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगु० । अहक०-चदुणोक०-दोगदि-दोसरीरदोअंगो०-वज्जरि०-दोआणु०-तित्थय. सिया. अणंतगु० । दोआउ०-थिरादितिण्णियुग० सिया० । तं तु० । एवमसा०-दोआउ०-थिरादितिण्णियु०। ___ २६२. मणुस० ज० बं० पंचणा०-छदसणा-असादा०-बारसक०-पंचणोक०अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस०-पंचंत० णि. अणंतगु० । पंचिदियादि याव णिमि०-उच्चा० णि । तं तु० । एवं मणुसगदिपंच० । २६३. देवगदि ज० ब० हेहा उवरि मणुसगदिभंगो। णाम सत्थाणभंगो। एवं देवगदि०४ । २६४. पंचिंदि० ज० ब० हेहा उवरि मणुसगदिभंगो। णामाणं० दोगदिसमान है। इसी प्रकार अर्थात् मत्यज्ञानी जीवोंके समान विभङ्गज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए। २६१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका, अरति शोकका व संयमप्रायोग्य प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, तेजसशरीर. कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। आठ कषाय, चार नोकपाय, दो गति, दो गरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अननन्तगुणा अधिक होता है। दो आयु और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार असातावेदनीय, दो आयु और स्थिर आदि तीन युगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २६२. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीवं पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय बारह कपाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश:कीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजातिसे लेकर निर्माण तक और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार मनुष्यगतिपश्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । २६३. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। तथा नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार देवगतिचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २६४. पश्चन्द्रियजातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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