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________________ wwwmom १२२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दोसरीर-दोअंगो०-वज्जरिस०-दोआणु०--तित्थ० सिया० । तं तु. । तेजइगादिपसस्थाओ उच्चा०णि । तं तु० | अप्पसत्थवण्ण-[ उप०-अथिर-असुभ-अजस०] णि. अर्णतगु: । एवं सव्वसंकिलिहाणं पंचिंदियभंगो। [अहारदुगं अप्पसत्य०४-उप० ओघं । ] एवं ओघिदं०-सम्मादि०-खइगसम्मा०-वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि उवसम० पसत्थाणं तित्थ० वज्ज असंजमपाओग्गा कादव्वा । २६५. मणपज्जवे खविगाणं ओघो । सेसाणं ओधिभंगो । एवं संजद-सामाइ.. छेदो०-परिहार-संजदासंजद० । णवरि परिहारवज्जाणं पसत्यपगदीणं तित्थयरं वज्ज । सुहुमसंप० अवगदवेदभंगो। २६६. असंजदेसु आभिणि दंडओ थीणगिदिदंडओ देवगदिसंजुत्तं' कादव्वं । सादासाद०-थिरादितिण्णियुग० सम्मादिहि-मिच्छादिहिसंजुत्ताओ कादवाओ। इत्थि०णवूस० ओघं । २६७. अरदि० ज० ब० दोगदि-दोसरीर--दोअंगो०-वजरि०-दोआणु०बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। नामकर्मकी दोगति, दो शरीर, दो आंगोपांग, वनर्षभनाराचसंहनन, दो भानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बम्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तेजसशरीर आदि प्रशस्त प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इस प्रकार जिनका सर्वसंक्लेशसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है उनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पञ्चन्द्रियजातिके समान जानना चाहिए। आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्ण चार और उपघातकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। इसी प्रकार अर्थात् श्राभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें प्रशस्त प्रकृतियोंको तीर्थङ्करप्रकृतिको छोड़कर असंयमप्रायोग्य करना चाहिए। ___२६५. मनापर्ययज्ञानी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामयिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिसंयतोंमें प्रशस्त प्रकृतियोंका तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। २६६. असंयत जीवोंमें आभिनिबोधिकदण्डक और स्त्यानगृद्धिदण्डकको देवगतिसंयक्त करना चाहिए । सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलको सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिसंयुक्त करना चाहिए । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग ओघके समान है। २९७. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो शरीर, दो आङ्गो१. प्रा. प्रतौ प्राभिणिदंडी देवगदिसंजुत्तं इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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