________________
१२०
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अंगो०-उज्जो० णिरयभंगो । आदाव. तिरिक्खभंगो । सेसं ओघं ।
२८७. अवगदवेदेसु अप्पप्पणो पगदीओ ओघो ।
२८८. कोधादि०४ ओघं । णवरि कोधे०१८ णिय० जह०। माणे०१७ जह० । मायाए१६ जह० । लोभे० ओघो।
२८६. मदि-सुद०-आभिणि० ज० बं० चदुणा० णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि० । तं तु०। सादावे०-देवगदिसत्तावीसं-उच्चा० णि० अर्णतगु० । एवमेदाओ तं तु० पदिदाओ' अण्णमण्णस्स तं तु०।
२६०. अरदि० ज० बं० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-भयदु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्थे०-तस०४-सुभगमुस्सर-आदें--णिमि०-पंचंत० णि. अणंतगु० । सादासोद०--तिण्णिगदि-दोसरीरदोअंगों वज्जरि०-तिण्णिआणु०-उज्जो०-थिरादि तिण्णियुग०-दोगो०सिया०अणंतगु०। शरीर, औदारिकांगोपांग और उद्योतका भंग नारकियोंके समान है। आतपका भंग तिर्यञ्चोंके समान है । शेष भंग ओघके समान है। . २८७. अपगतवेदी जीवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है।
२८८. क्रोधादि चार कषायोंमें ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रोध कषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इन अठारह प्रकृतियोंका नियमसे एक साथ जघन्य अनुभागबन्ध होता है। मानकषायमें संज्वलन क्रोधके सिवा सत्रह प्रकृतियोंका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है। माया कषायमें संज्वलनक्रोध और संज्वलन मानके सिवा सोलह प्रकृतियोंका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है । लोभकषायमें ओघके समान भंग है।
२८६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, देवगति
आदि सत्ताईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार इन तं तु पतित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष परस्पर आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान जानना चाहिए।
२६०. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चोन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसस्थान, प्रशस्त वणचतुष्क, अप्रशस्त वणेचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायागति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तीन गति, दो शरीर, दो प्रांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर आदि तीन युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष भंग ओघके
१. ता० प्रतौ तं तु पंचिंदा (दिया) श्रो, आ. प्रतौ तं तु. पंचिंदियाश्रो इति पाठः । २. श्रा प्रतो श्रगु० ३ पसस्थ० इति पाठः। ३. ता. श्रा०प्रत्योः दोगो० इति पाठः । ४. श्रा०प्रतौ तिण्णि श्राणु थिरादि० इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org