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बंधसण्णियासपरूवणा
११६ २८४. ओरालि०अंगो० ज० ब० हेहा उवरिं तेजइगभंगो। बीइंदि०-पंचिं०पर०-उस्सा०-उज्जो०-अप्पसत्थं०-पज्जत्तापज्जत्त०-दुस्सर० सिया० अणंतगु० । तिरिक्खगदिसंजुत्ताओ णिय, अणंतगु० । तित्थयरं ओघं ।
२८५, पुरिसेसु सत्तण्णं कम्माणं इत्थिभंगो । पंचिंदिय०--ओरालि०-वेउव्वि०आहार-तेजा.-क०-तिणि अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-आदाउज्जो०-तस०४-णिमि०खविगाणं तित्थय० ओघं । सेसाणं इत्थिभंगो।
___ २८६. णqसगे पढमदंडओ इत्थिभंगो । सेसं ओघ । णवरि पंचिंदि० ज० बं. पंचणा०-णवदंस०-असाद०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-उप०अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०--णीचा०--पंचंत० णि. अणंतगु० । दोगदि-असंप०दोआणु-णीचा० [सिया०] अणंतगु० । दोसरीर--दोअंगो०-उज्जो० सिया । तं तु० । तेजा.-क०-पसत्य०४-अगु'०३-तस०४-णिमि०णि तं तु० । एवं पंचिंदियभंगो तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० । ओरालि'.-ओरालि०
२८४. औदारिक आङ्गोपांगके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पूर्वकी और अन्तकी प्रकृतियोंका भंग तैजसशरीरके समान है। द्वीन्द्रियजाति, पञ्चन्द्रियजाति, परवात, उच्छवास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तिर्यञ्चगति संयुक्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। ।
२८५. पुरुषवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, तीन आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण, क्षपक प्रकृतियाँ और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदीके जीवोंके समान है।
२८६. नपुंसकवेदी जीवों में प्रथम दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। शेष भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पञ्चोन्द्रियजातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उषघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो गति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय जातिके समान तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बसचतुष्क और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । औदारिक
१. श्रा० प्रतौ अप्पसत्थ०४ इति पाठः । २. ता. श्री. प्रत्योः -पजत पत्ते. दुस्सर इति पाठः । ३. ता० प्रती दोगदि० असंप (अप्पस ) त्थ दोश्राणु०, श्रा० प्रतौ दोगदि० अप्पसस्थ० दोप्राणु० इति पाठः । ४. ता. प्रतो अगु०४ इति पाठः। ५. प्रा. प्रतौ तस ४ णिमि० श्रोरालि• इति पाठः ।
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