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________________ महाणुभागबंधाहियारे छदंस०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु० - मणुसगदि पंचिं ० - ओरालि० - तेजा ० क० - समचदु०ओरालि० अंगो०- वज्जरि० - पसत्थापसत्य०४ - मणुसाणु ० - अगु०४ - पसत्थवि०-तस०४सुभग- सुस्सर-आदे० - णिमि० उच्चा० पंचत० णि० अनंतगुणन्भ० । चदुणोक० - तित्थ० सिया० अनंतगुणन्भ० । मणुसाउ०- थिरादितिष्णियुग० सिया० । तं तु० । एवं सादभंगो असाद० - मणुसाउ० - थिरादितिष्णियुग० । अरदि-सोगं देवोघं० । ११४ २७२. मणुसग० ज० बं० पंचणा० छदंस ० - असादा ० - बार सक० - पंचणोक०पंचत० णि० अनंतगुणन्भ० । उच्चा० णि० । तं तु० । णाम० सत्थाणभंगो० । एवं सव्वसंकिलिद्वाण भंगो उच्चा ० । २७३. पंचिंदि ० -तस०२ - पंचमण० - पंचवचि ० - कायजोगी० ओघो। ओरालि० मणुभंगो' । णवरि तिरिक्ख०३ मूलोघं । ओरालियमि० आभिणि० दंडओ तिरिक्खोघं । णवरि बारसक० णि० । तं तु० । तित्थ० सिया० अनंतगुणन्भ • | थीण ० भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पख ेन्द्रिय जाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वार्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। चार नोकषाय और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्यायु और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार सातावेदनीयके समान असातावेदनीय, मनुष्यायु और स्थिर आदि तीन युगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अरति और शोकका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । 1 २७२. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है। इस प्रकार सर्व संक्लेशसे जघन्य बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंके समान उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । २७३. पच ेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवों के समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यगतित्रिकका भङ्ग मूलोघके समान है। श्रदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में आभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डकका भङ्ग सामान्य तिर्यखोंके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह कषायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य १. ता० ना० प्रत्योः मणुसगदिभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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