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________________ बंधसणियासपरूवण। ११५ गिद्धि०३-अर्णताणुबं०४ देवोघं । सादासाद०-थिरादितिण्णियुग० ओघं । णवरि असाद० जह० बंधगस्स विसेसो। देवगदिपंचग० सिया० अणंतगुणब्भ० । इत्थि०पुरिस०-दोआउ०-मणुसग०--पंचजादि-ओरालि०--तेजा.--.--छस्संठा०--ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-पसत्यापसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०४-आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयुग०-उच्चा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। अरदि-सोगं देवोघं । णवरि देवगदिसंजुत्तं । तिरिक्ख..तिरिक्वाणु०-णीचा ओघ । देवगदिपंचगं तित्थयरभंगो। २७४. वेउवि० आभिगिदंडओ थीणगिद्धिदंडओ च णिरयोघं। तिरिक्वायुतिरिक्वग०-तिरिक्वाणु०-णीचा०णिरयोघं । सेसाणं पगदीणं देवोघं। णवरि इत्थि०णस० णिरयोघं । एवं वेउव्वियमि० ।। २७५.[आहार०-]आहारमि० आभिणि० ज० बं० चदुणा०-छदसणा०-चदुसंज०पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत. णि । तं तु० । साद०-देवगदिआदिसत्तावीसंउच्चा०णि तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवमण्णोण्णं तं तु० । साद ज. बं. सव्वह०भंगो । णवरि अहक० वज्ज । देवगदी धुवं । एवं सादभंगो देवाउ०-थिर-सुभअनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। सातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि असातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके विशेष जानना चाहिए। देवगति पञ्चकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिक प्रांगोपांग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और उच्चगोत्रका भंग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । अरति और शोकका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगतिसंयुक्त करना चाहिए । तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग ओघके समान है । देवगतिपञ्चकका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है। २७४. वैक्रियिककायोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डक और स्त्यानगृद्धिदण्डक सामान्य नारकियोंके समान है । तिर्यश्चायु, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । २७५. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, देवगति आदि सत्ताईस प्रकृतियों और उच्चगोत्रका नियमसे तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तं तु पतित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग सर्वार्थसिद्धि के समान है। इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंको छोड़कर कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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