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________________ ११६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे जस० । एवं तप्पडिपक्वाणं । णवरि देवाउ० गत्थि । २७६. देवगदि० ज० बं० पंचणा०-छदसणा० -असादा०-चदुसंज०-पंचणोक०अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । उच्चा० णि.! तं तु० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं सव्वसंकिलिहाणं । - २७७. कम्मइ० आभिणि० ज० बं० दोगदि दोसरीर -दोअंगो०-वजरि०दोआणु०-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । सेसं ओरालियमिस्स भंगो। थीणगि०[३-] मिच्छ०-अणंताणु०४ ज. बं० मणुस०--मणुसाणु०-उज्जो०--उच्चा० सिया० अणंतगुणब्भ० । तिरिक्व०-तिरिक्रवाणु०--णीचा० सिया० । तं तु० । सेसाणं ओघं । णवरि दोगदि-दोसरीर--दोअंगो०-वजरि०--दोआणु० सिया० अणंतगुणब्भ० । देवगदि०४ ओरालियमिस्स भंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सत्तमपुढविभंगो । __२७८, ओरालि० ज० बं० एइंदि०--थावरादि०४ सिया० अणंतगुणब्भ० । देवगतिको ध्रुव कहना चाहिए। इसी प्रकार सातावेदनीयके समान देवायु, स्थिर, शुभ और यशः कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि देवायु नहीं है। २७६. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय. अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है. तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार सर्व संकलेशसे जघन्य बँधनेवाली प्रकृतियोंका जानना चाहिए । २७७. कार्मणकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो भानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग. वर्षभनाराच संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सातवीं पृथिवीके समान है। २७८. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रियजाति और स्थावर आदि चारका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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