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________________ बंधसण्णियासपरूवणा ११७ पंचिं०-ओरालि० अंगो०-पर०-उस्सा०-आदाउज्जो०-तस४ सिया० । तं तु० । एवं ओरालिय०भंगो तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि०-पंचिं०-पर०-उस्सा०-उज्जोव० । तस०४ मूलोघं । सेसाणं ओरालियमिस्स०भंगो।। २७६. इत्थिवेदेसु आभिणि० ज० बं० चदुणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पुरिस०पंचंत० णि. जहण्णा० । साद०-जस०-उच्चा० णि० अणंतगुणब्भ० । एवमेदाओ अण्णोएणं जहण्णा० । सेसाणं खवगपगदीणं ओघं ।। २८०. सादा० ज० बं० पंचणा०-छदंसणा०-चदुसंज०-भय-दुगुं०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । सेसं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं असाद०-थिरादितिएिणयु०। इत्थि०-णस०-चदुआउ०-चदुगदि-चदुजादि छस्संठा०छस्संघ०-चदुआणु०-दोविहा०-थावरादि०४-मज्झिल्ल०३-दोगो० पंचिं०तिरिक्वभंगो । २८१. पंचिंदि० ज० पंचणा०--णवदंस०-असाद०--मिच्छ०--सोलसक०पंचणोक०-णिरयग०-हुंडसंठा०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०--उप०--अप्पसत्थ०--अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंतरा० णि० अणंतगुणब्भ० । वेउवि०-तेजा०-क०-वेउव्वि०अंगो०पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और बसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार औदारिकशरीरके समान तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण, पञ्चन्द्रियजाति, परघात, उच्छवास और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष मूलोषके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। २७६. स्त्रीवेदी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायका नियमसे जघन्य अनुभाग बन्ध करता है। सातावेदनीय, यशाकीर्ति और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता हैजो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार परस्पर जघन्य अनुभाग बन्ध करनेवाली इन प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। २८०. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शेष भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार आयु, चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, मध्यके तीन युगल और दो गोत्रका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। २८१. पश्चन्द्रियजातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पांच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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