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________________ भुजगारबंधे भावाणुगंमो णिरयादि याव सण्णि ति अवत्त० अप्पप्पणो द्विदिभुजगारअवत्तव्वभंगो कादव्यो। सेसपदा कालेण साधेदव्वं । तेऊए देवगदि०४ अवत्त० ज० ए०, उ. मासपुधः । ओरालि० अवत्त० ज० ए०, उ० अडदालीसं मूहुत्तं । एवं पम्माए वि। णवरि ओरालि०-ओरा०अंगो०' अवत्त० ज० ए०, उ० पक्खं० । ___ एवमंतरं समत्तं । भावाणगमो ५४७. भावाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वपगदीणं भुज-अप्प०नरकगतिसे लेकर संज्ञी तक शेष मार्गणाओंमें अवक्तव्यपदका भङ्ग अपने-अपने स्थितिबंधके भुजगारके अवक्तव्य भङ्गके समान कहना चाहिए। शेष पदोंको कालके अनुसार साध लेना चाहिए। पीतलेश्यामें देवगतिचतुष्कके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण है। औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर अड़तालीस मुहूर्त है। इसी प्रकार पनलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर और औदारिक आङ्गोपाणके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पक्षप्रमाण है। विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदकी प्राप्ति दो प्रकारसे होती है। प्रथम तो उपशमश्रेणिसे मरकर देव होने पर और दूसरे चतुर्थ गुणस्थानसे मरकर नारकी होने पर या चतुर्थादि किसी भी गुणस्थानसे मरकर देव होने पर । इसका अभिप्राय यह है कि चतुर्थगुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्रकायप्रयोगका जो अन्तर है वही यहाँ मनुष्यगतिपश्चकके अवक्तव्यपदका अन्तर है। जीवस्थान अन्तर प्ररूपणामें यह जघन्य रूपसे एक समय और उत्कृष्ट रूपसे मासपृथक्त्वप्रमाण बतलाया है। इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण लिया गया है। पहले औदारिकमिश्रकाययोगमें देवगतिचतुष्कके अवक्तव्यपदका अन्तर बतला ही आये हैं। वही यहाँ घटित कर लेना चाहिए। मात्र अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यगतिपञ्चक और देवगतिचतुष्कका यह उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि कोई अवधिज्ञानी अधिकसे अधिक इतने काल तक वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी न हो यह संभव है। अवधिज्ञानीके समान ही उपशमसम्यग्दृष्टिमें यह अन्तर जानना चाहिए। पीतलेश्यामें देवगतिचतुष्कके अवक्तव्य पदका अन्तर औदारिकमिश्रकाययोगोके समान ही घटित कर लेना चाहिए। परन्तु पीतलेश्यामें वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर अड़तालीस मुहूर्त है, इसलिए यहाँ औदारिकशरीरके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर अड़तालीस मुहूर्त कहा है और पनलेश्यामें वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर एक पक्षप्रमाण है, इसलिए पद्मलेश्यामें औदारिकद्विकके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर एक पक्षप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। भावानुगम ५४७. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब १. ता. प्रतौ णवरि ओरालि० अङ्गो० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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