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________________ २६८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वजरि० अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । तित्य. तिगिणप. ओघं । अवत्त० ज. अंतो०, उ० पुव्वकोडितिभागं दे । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो । अचक्खु० ओघं । ४८३. किएणाए पंचणा०-छदंस०-बारसक०-भय-दु०-तेजा-क०-वएण०४अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. भुज०-[ अप्प० ] ज० ए०, उ. अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । थीणगि०३--मिच्छ०--अणंताणु०४--णस०-हुंड०-- अप्पस०--दूभग--दुस्सर-अणादें--णीचा० दोपदा ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो', उ० तेत्तीसं० दे०। अवढि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० दो अंतोमुहुत्तं सादि० पवेसणिक्खमणे। साद०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० भुज-अप्प० णाणा०भंगो। अवहि. ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि• मुहुत्तं सादि० णीतस्स० । अवत्त० ज० उ० अंतो० । असाद-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० सादभंगो। णवरि अवढि० तेत्तीसं सादि० दोहि मुहुत्तेहिं सादिरेयं पवेस-णिक्खमणे । इत्थि०-दोग०-चदुसंठा-पंचसंघ०-दोआणु०उच्चा० भुज०-अप्प०-अवत्त० णqसगभंगो । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० मुहुत्तेण णीतस्स । पुरिस०-समचदु०--वजरि०--पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें भुज०विशेषता है कि वर्षभनाराचसंहननके प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। चक्षुदर्शनी जीवोंमें त्रस पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें ओघके समान ४३. कृष्णलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है ।स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्त. मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रवेश और निष्क्रमणके दो अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर निर्गमकी अपेक्षा एक अन्तमुहर्त अधिक तेतीस सागर है। प्रवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्त अन्तमुहूर्त है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका भङ्ग सातावेदनीयके समान है, किन्तु अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर प्रवेश और निष्क्रमणकी अपेक्षा दो अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। स्त्रीवेद, दो गति, चार संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका भङ्ग नपुंसकों के समान है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर निर्गमनका एक अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस १. ता० श्रा० प्रत्योः ज० ज० अंतो० इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ णाणाभंगो। अवधि ज० ए०, उ. तेत्तीस सादि.दोहि मुहत्तेहि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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