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________________ भुजगारबंधे अंतराणुगमो मणपज्जव०मंगो। आहारदुगं भुज०-अप्पद० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० पुवकोडी देसू० । अवत्त० ज० उ० अंतो०। णवरि तित्थ. पत्थि अंतरं । मुहुमसंप० सव्वपगदीणं भुज०--अप्प० णत्थि अंतरं। संजदासंजद० सव्वपगदीणं परिहार भंगो। ४८२. असंजदे धुवियाणं भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि. ज. ए०, उ. असंखेंजा लोगा । थीणगिदिदंडओ सादादिदंडओ णqसगभंगो। इत्यिणस-पंचसंठा-पंचसंघ०-उज्जो०-अप्पसत्थ०-भग--दुस्सर-अणादें भुज०-अप्पद. ज० ए०, अवतं० [ज०] अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । अवहि० ओघं । पुरिस०-समचदु०-वज्जरि०-पसत्थ०--सुभग--सुस्सर-आदें तिएिणप० गाणाभंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० देसू० । चदुआउ०-वेउछ०-मणुसर्ग०-मणुसाणु०-उच्चा० ओघ । चदुजादिदंडओ पंचिंदियदंडओ णqसगभंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सगभंगो । ओरालि० भुज०-अप्प०-अवहि०-अवत्त० ओघं । ओरालि० अंगो-वजरि० तिएिणपदा० ओघं । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि० अंतोमुहुत्तेण । णवरि जीवोंके समान है। आहारकद्विकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिके प्रवक्तव्यपदका अन्तर नहीं है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका अन्तरकाल नहीं है। संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियों का भंग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। ४८२. असंयतोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। स्त्यानगृद्धिदण्डक और सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है। पुरुषवेद, समचतुरन संस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग ओषके समान है । चार जातिदण्डक और पश्चन्द्रियजाति दण्डकका भङ्ग नपुंसकोंके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग नपुंसकोंके समान है । औदारिक शरीरके भुजगार, अल्पतर अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराचसंहननके तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है। प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। इतनी १. प्रा० प्रती ए. उ. अवत्तः इति पाठः । २. ता० प्रती घेउ० मणुसग इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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