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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४७६. मणपज० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज०-पुरिस-भय-दु०-देवग०-पंचि०वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि.. तस०४-सुभग-सुस्सर--आर्दै-णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० दोण्हं पि पुव्वकोडी दे । सादासाद०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियु० भुज०-अप्प०-अवहि' णाणाभंगो। अवत्त. ज० उ० अंतो० । एवं आहारदुगं । देवाउ० मणुसभंगो । एवं संजदा०।।
४८०. सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंसणा०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचत० भुज०अप्प० ज० ए०, उ० अंतो०। अवहि० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी दे० णिहा-पचला०तिण्णिसंज०-पुरिस०-भय०-दु०--देवग०--पंचिं०-वेउन्वि०--तेजा.क०-समचदु०-वेउ०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्यवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि०तित्थ० भुज०-अप्प०-अवहि० णाणाभंगो। अवत्त० णत्थि अंतरं । सादादिदंडओ देवाउ० मणपज्जवभंगो।। ___४८१. परिहार० धुवियाणं भुज०-अप्प०-अवहि० साददंडओ देवाउ०--तित्थ०
४७६. मनःपर्यययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थक्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक स
पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तथा अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार आहारकद्विकका जानना चाहिए । देवायुका भङ्ग मनुष्योंके समान है । इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए।
४८०. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शना. वरण, लोभसंज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। निद्रा, प्रचला, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय मादि दण्डक और देवायुका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है।
४८१. परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग, सातावेदनीय दण्डक, देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी
१. श्रा० प्रती भुज० अघडि० इति पाठः । २. ता० श्रा० मत्योः वण्ण० देवाणु० इति पाठः ।
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