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________________ ३२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तं तु० । हुंड०-अप्पसत्थ०४-उप०--अप्पसत्थ०--अथिरादिछ० णि. अणंतगुणब्भ० । एवं तस० । ६७. ओरालि. ज. बं. तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-अथिरादिपंच० णिय० अणंतगुणब्भहियं० । एइंदि०-असंपत्त०-अप्पस०-थावर०-दुस्सर० सिया० अणंतगुणभहि० । पंचि०--ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० । तं तु०। तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत-पत्ते-णिमि० णि । तं तु० । एवं उज्जो० । वेउवि० ज० बं० णिरय०--हुंड०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०--उप०अप्पसत्थ० अथिरादिछ० णियं० अणंतगुणभहियं० । पंचिंदि०-तेजा.-क०-वेउवि०अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि.। तं तु. छहाणपदिदं० । एवं वेउवि०अंगो०। आहार० ज० ब० देवगदि०--पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०--क०-समचदु०-वेउव्वि० अंगो०-पसत्थापसत्य०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ० पतित वृद्धिरूप होता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है, जो तं तु-रूप होता है। हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार त्रसप्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६७. औदारिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है ,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूपहोता है।जो तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है, वह जघन्य व अजघन्य अनुभाग बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। वैक्रियिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आहारकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त १. ता० प्रतौ अथिरादिछ. णिमि० णियः इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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