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________________ बंधसण्णियासपरूवणा णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ०। आहार०अंगो० णि० ब०। तं तु०। तित्थय० सिया० अणंतगुणब्भः । एवं आहारअंगों' । तेजा० जह० बंध० णिरय-तिरिक्ख०एइंदि०-असंप०-दोआणु०-अप्पसत्थन्थावर-दुस्सर० सिया० अणंतगु० । पंचिंदि०दोसरी०-दोअंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० । तं तु०। कम्मइ०-पसत्य०४-अगु०३बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय० । तं तु० । हुंड०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-अथिरादिपंच० णि. बं० अणंतगुणब्भहियं० । एवं कम्मइ०-पसत्थ०४-अगु०३-बादरपज्जत्त-पत्ते-णिमि० । ६८. समचदु० ज० बं० तिरिक्व०-दोसरीर०-दोअंगो०-तिरिक्वाणु०-उज्जो०सिया० अणंतगु० । मणुसग०--देवग०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु०। पंचिंदि-तेजा०-क०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । एवं समचदुर०भंगो पसत्थ०-सुभग-मुस्सर-आदें। णग्गोद. विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। आहारक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार आहारक अाङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तैजसशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो भानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तप, उद्योत और त्रसका कदाचित बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चार, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माण का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार कार्मणशरीर, प्रशस्त, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६८. समचतुरस्रसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्यगति, देवगति, छह संहनन, दो भानुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् वन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पञ्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार समचतुरस्त्रसंस्थानके समान प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और १. ता. प्रतौ आहारभ० (अं) गो०, श्रा० प्रतो आहारभंगो० इति पाठः। २. आ. प्रतौ तेजाक बंध० इति पाठः । ३. ता० श्रा० प्रत्योः असंपत्तवण्ण ४ उप० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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