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________________ १७४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३६७. मदि०--सुद० ओघं। णवरि देवगदिदुगंउ० खेत्त०, अणु० पंच चोद० । वेउवि०-वेउन्वि०अंगो० उ० खेत्तभंगो, अणु० ऍकारह० । विभंगे. पंचिंदियभंगो। णवरि देवगदिचदुक्क० मदिभंगो। ३६८. आभिणि-सुद०-ओधि० पंचणा०--छदंसणा०-असादा०वारसक०-सत्तणोक-मणुसगदिपंच०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस-पंचंत० उ० अणु० अहः। एवं मणुसाउ० । सादा-पंचिं०--तेजा०-क-समचदु०-पसत्थ०४-अगु०३ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। इनके अनुत्कृष्टके समान सातावेदनीय आदि, हास्य, रति और एकेन्द्रियजाति आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक प्रमाण स्पर्शन जान लेना चाहिए। सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है। हास्य और रतिका उत्कृष्ट अनभागबन्ध नारकियों के तिर्यश्चों और मनुष्यों में तथा तिर्यश्चों और मनुष्योंके एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेके समय भी होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चों और मनुष्योंके नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी जानना चाहिए, इसलिए इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। एकेन्द्रिय जाति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्य तो करते ही हैं, साथ ही ये जब एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तब भी होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यश्चोंके समान कहा है । शेष कथन सुगम है। ३६७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ओघके समान स्पर्शन है। इतनी विशेषता है कि देवगतिद्विकके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पञ्चन्द्रियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । विशेषार्थ—जो मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च और मनुष्य बारहवें कल्प तक समुद्घात करते हैं उनके देवगतिद्विकका बन्ध होता है । यद्यपि मनुष्य मिथ्यादृष्टि नौवें प्रैवेयक तक उत्पन्न होते हैं पर उससे इस स्पर्शनमें अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि उनका प्रमाण संख्यात है और ऐसे जीवोंका कुल स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहाँ देवगतिद्विकके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा वैक्रियिकिद्विकका नीचे छह राजू और ऊपर पाँच राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करनेवाले जीवोंके बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ३६८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, मनुष्यगति पश्चक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश कीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी अपेक्षासे स्पर्शन जानना चाहिए । सातादनीय, पञ्चोन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मण SN उपघात, अस्थिर, अशु चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका जसशरीर, कामण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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