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________________ womaaaaaaaaaaaaa.ne. महाबंधे अणुभागबंधाहियारे आहारमि० छण्णं कम्माणं सव्वह भंगो। कोधसंज. उ० बं० तिण्णिसंज०-पुरिस:अरदि-सोग-भय-दु० णिय० । तं तु० । एवमेक्कमेकॅस्स । तं तु० । ३६. हस्स० उ० बं० चदुसंज०-पुरिस०-भय०-दु० णि. अणंतगुणहीणं । रदि० णि । तं तु० । एवं रदीए । ४०. देवगदि० उ० बं० पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०-वेउन्वि.. अंगो०-पसत्थवण्ण०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि । तं तु० । अप्पसत्थवण्ण०४-उप० णिय. अणंतगुणहीणं० । तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं पसत्थाओ ऍकमेकस्स । तं तु० । ४१. अप्पसत्थवणं० उ. बं. देवगदि--पंचिंदि०-वेउव्वि-तेजा०-क०भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उद्योतका भंग मूलोधके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें छह कर्मोंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धिके समान है। क्रोध संज्वलनके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके उत्कृष् अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है । ___३६. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनु व भी करता है। यदि अनुत्कृष्ठ अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४०. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पंवेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसवतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव इन्हींमेंसे शेषका. उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग वन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है।। ४१. अप्रशस्त वर्णके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, १. श्रा. प्रतौ अप्पसत्थवण्ण.४ इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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