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________________ बंधसण्णियासपरूषणा समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-पसत्थ०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्थ०-तसं०४-सुभग-सुस्सरआद-णिमि० णि० अणंतगुणहीणं० । अप्पसत्थगंध०३-उप०-अथिर-असुभ-अजस० णि । तं तु । तित्थ० सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं अप्पसत्थगंध०३-[उप०-] अथिर-असुभ-अजस। ४२. कम्मइ० सत्तण्णं कम्माणं ओघं । तिरिक्व० उ० बं० एइंदि०-असंप०अप्पसत्थवि०-थावर-सुहुम-अपज्ज०-साधार०-दुस्सर० सिया० । तं तु० ! पंचिं०ओरालि० अंगो-पर०-उस्सा-आदाउज्जो०-तस०४ सिया० अणंतगुणहीणं० ओरालि०तेजा०-क०-पसत्थ०४--अगु०-णिमि० णिय० अणंतगु० । हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अथिरादिपंच० णि । तं तु० । एवं तिरिक्खगदिभंगो हुंड०अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अथिरादिपंच० । मणुसग० उ० बं० णिरयोघं । एवं ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० । देवगदि०४ ओरालियमिस्स भंगो। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। अप्रशस्त गन्ध तीन, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनभागको लिये हए होता है। इसी प्रकार अर्थात अप्रशस्त वर्णके समान अप्रशस्त गन्ध आदि तीन, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी गुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४२. कार्मणकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और सचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभाग रूप होता है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभाग रूप होता है । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिके समान हुण्डक संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और स्थर आदि पाँचकी मख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए। मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके जिसप्रकार कह आये हैं, उस प्रकार जानना चाहिए । इसी प्रकार औदारिकशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी १ श्रा० प्रतौ श्रगु० ३ तस० इति पाठः । २ ता. प्रतौ अणादे० इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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