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________________ बंधसण्णियासपरूवणा तेउ०-वाउका० एइंदियभंगो । णवरि तिरिक्वगदि०-तिरिक्खाणु० धुवभंगो। पसत्थाणं उज्जो० सिया० । तं तु.। ३६. पंचिंदि०-तस०२ ओघभंगो । एवं पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०कोधादिष्ट-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारग त्ति । ओरालि० मणुसभंगो । ३७. ओरालियमि० सत्तणं कम्माणं अपज्जत्तभंगो। तिरिक्ख०-चदुजा०पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-थावरादि०४-अथिरादिछ. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । मणुसगदिपंचगं पंचि०तिरिक्वभंगो। देवगदि उ० बं० पंचिंदि०-वेवि०-तेजा-क०-समचदु०-वेउन्वि० अंगो०-पसत्थ०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० । तं तु० । अप्पसत्थ०४--उप० णि. अणंतगुणहीणं । तित्थ० सिया० । तं तु.। एवमेदाओ ऍक्कमक्कस्स तं तु०। ३८. वेउव्वियका०-वेउब्वियमि० देवोघं । णवरि उज्जो० मूलोघं । आहार०सन्निकर्ष पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रियोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें एकेन्द्रियों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष ध्रुवभङ्गके समान है। प्रशस्त प्रकृतियों और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है, किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिए हुए होता है। ___ ३६. पंचेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। औदारिककाययोगी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। . ३७. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भंग अपर्याप्तकोंके समान है । तिर्यश्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि छहका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों के समान है। मनुष्यगतिपश्चकका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है । देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ठ अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३८. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान १. श्रा० प्रतौ थिरादिछ० इति पाठः । स्थर आदि छह और निर्यात । किन्तु वह उत्कृष्ट अन भी करता है ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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