SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तं तु० । एवं रदीए । १५३. णिरयायु० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णिरयगदिअहावीस०-णीचा-पंचंत० णि० अणंत०हीणं० । १५४. तिरिक्वायु० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०--सोलसक०-भयदु०-तिरिक्व०-पंचिंदि० - ओरालि०-तेजा०-क० - समचदु०-ओरालि०अंगो० - वज्जरि०पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्रवाणु० -- अगु०४-पसत्थवि० - तस४- सुभग-सुस्सर--आदेंणिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंत०ही० । सादासाद०-इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदिअरदि-सोग-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० अणंतगुणही० । एवं मणुसायु' । णवरि उच्चा० णि० अणंतगु० । १५५. देवायु० उ० बं० पंचणा०-छदंसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस०-हस्सरदि-भय-दु०-देवगदिसत्तहावीसं--उच्चा०--पंचंत० णि० अणंतगुणहीणं० । आहारदु०तित्थय० सिया० अणंतगुणहीणं० । १५६. णिरयगदि उ० वं० पंचणा०-णवदसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १५३. नरकायुके उत्कृष्ट अनुभागका ‘बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। १५४. तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक प्रांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश:कीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। १५५. देवायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि सत्ताईस या अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। आहारकद्विक और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। १५६. नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शना१. ता. श्रा० प्रत्योः मणुसाणु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy