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________________ पडसमुदाहारो अणाहारए ति । अवगद ० ओघं । एवं सुहुमसंप० । आभिणि सुद- अधि०-मणपञ्ज०संज० - सामा० - छेदो०- ओधिदं ० -सुक्क० सम्मा० - खड्ग ० - उवसम० ओघं । णवरि अप्पपण पगदीओ णादव्वाओ । परिहार० - संजदासंज० - वेदग० सव्वहभंगो । ६३६. णील - काऊणं सव्वबहूणि देवग० । मणुसग० असं० गुणही ० । णिरयग० असं० गुणहीणाणि । [ तिरिक्खग० | असं० गु० ] | एवं आणु० । तेउले ० देवभंगो । एवं पम्मा वि । मदि० - सुद० - विभंग० - असंज० - अब्भवसि ० - मिच्छा० - असण्णि० सव्वपयाड - अणुभागबंध ज्झवसाणाणाणि तिरिक्खगदिभंगो' । सासणे णिरयभंगो । सम्मामि० वेदग० भंगो | एवं सव्वपगदीणं याव अणाहारए त्ति दव्वं । चदुवीसमणियोगद्दाराणि अप्पा बहुगेण साधेदूण कादव्वं । णवरि जम्हि अनंतगुणहीणाणि तम्हि अणुभागबंधज्झवसाणाणाणि असंखेजगुणहीणाणि कादव्वाणि । एदेण बीजेण सत्थाणप्पाबहुगं । एवं अणाहारए त्तिणेदव्वं । ३७७ एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं । ६३७. परत्थाणप्पाबहुगं पगदं । दुवि० । ओघेण एतो चदुसट्ठिपडिगो दंडगोयोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है । कार्मणकाययोगी जीवों में औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। अपगतवेदी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, शुकुलेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है । ६३६. नील और कापोतलेश्यामें देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं । इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे नरकगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तिर्यञ्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इसी प्रकार आनुपूर्वियोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए। पीतलेश्यामें देवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तिर्यञ्चगतिके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में नारकियोंके समान भङ्ग है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार सब प्रकृतियोंका अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । चौबीस अनुयोगद्वार अल्पबहुत्वके अनुसार साध कर करने चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर अनन्तगुणे हीन है, वहाँ पर अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन करने चाहिए। इस बीजसे स्वस्थान अल्पबहुत्व है । इस प्रकार अनाहारक तक जानना चाहिए । इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । ६३७. परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है१. ता. प्रतौ असण्ण० 'णि तिरिक्खगदिभंगो, आ. प्रतौ असण्णि० 'तिरिक्खगदि भंगो इति पाठः । ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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