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________________ ३७६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे गुणही० । गदिभंगो आणुपुव्वी । एत्तो सव्वयुगलाणं सव्वबहूणि पसत्थाणं अणुभा० । तप्पडिपक्खाणं अणुभा० असं०गुणही। ६३४. सव्वबहूणि विरियंतरा० अणुभा० । हेट्ठा० दाण. असं गुणही' । एवं ओघभंगो-पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-इत्थि०-पुरिस०-णस०कोधादि०४-मदि०-सुद०-विभंग०-असंज०-चक्खु०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०अब्भवसि०-मिच्छा०-सण्णि-आहारए त्ति । ६३५. णिरएसु यत्तियाओ पगदीओ अत्थि तासिं मूलोपं । एवं सत्तसु पुढवीसु० । तिरिक्खेसु सव्वबहूणि णिरयाउ० अणुभा० । देवाउ० असं०गुणही । मणुसाउ० असं०गुणही० । तिरिक्खाउ० असं०गुणही। सव्वबहूणि देवगदि० अणुभा० । णिरयग० असं०गुणही । तिरिक्ख० असं०गुणही० । मणुसग० असं०गुणही० । सेसाणं मूलोघं । एवं सव्वतिरिक्खाणं सव्वअपज०-एइंदि०-विगलिं० पंचकायाणं च । मणुस०३ गदीओ तिरिक्खगदिभंगो। सेसं मूलोघं । देवाणं मूलोघं । ओरालि० मणुसभंगो। ओरा०मि० तिरिक्खगदिभंगो। वेउ०-वेउ०मि० देवगदिभंगो। आहार-आहार०मि० सव्वट्ठभंगो। कम्मइ० ओरालिमिस्सभंगो। एवं चार आनुपूर्वियोंका भङ्ग चार गतियोंके समान है। सब युगलोंमें सब प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। ६३४. वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है । पीछे दानान्तराय तक प्रतिलोम क्रमसे प्रत्येकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन असंख्यातगुणे हीन है। इस प्रकार ओघके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६३५. नारकियोंमें जितनी प्रकृतियाँ हैं उनका भङ्ग मूलोघके समान है। इसी प्रकार चाहिए । तियेश्वोंमें नरकायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहत हैं। उनसे देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। उनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । उनसे तिर्यश्चायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे नरकगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे तिर्यश्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । इसी प्रकार सब तिर्यञ्च, सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें चार गतियोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। तथा शेष भङ्ग मूलोघके समान है। देवोंमें मूलोधके समान भङ्ग है। औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तियश्चोंके समान भङ्ग है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिके समान भङ्ग है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाय १. ता. आ. प्रत्योः हेट्ठा हुंड० असं०गुणही० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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