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________________ बंधणिया सपरूवणा ૪૭ णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । उस्सा० णि० । तं तु० । थिराथिर - सुभासुभ० सिया० अतगुणभ० । एवं उस्सासं० । १००, आदाव० ज० बं० तिरिक्ख० एइंदि० - ओरालि० - तेजा ० क० - हुंडसं ०पसत्थापसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० -- अगु०४ - थावर० - बादर० - पज्जत्त० - पत्ते ० - दूर्भागअणादे० - णिमि० णि० अनंतगुणब्भ० । थिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० सिया० अणंतगु० । एवं उज्जो ० । ० १०१. पसत्थवि० ज० बं० दोगदि ० - चदुजादि ० - छस्संठा • वस्संघ० - दोआणु ०थिरादियुग० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा० क० - ओरालि० अंगो००-पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - णिमि० णि० अनंतगुणब्भ० । उज्जो० सिया० अनंतगुणभ० । तस०४ सिया० । तं तु० । एवं दुस्सर० । एवं चैव तस० । णवरि पज्जत्तापज्जत्त ० सिया० । तं तु० । निर्माणका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । उच्छ्वासका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार उच्छ्वासकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १००. तपके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, श्रदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माणका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यताले सन्निकर्षं जानना चाहिए । १०१. प्रशस्त विहायोगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है | यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । दारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । उद्योतक कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । त्रसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार दुःस्बर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार नस प्रकृतिकी मुख्यता से भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि यह पर्याप्त और अपर्याप्ता कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । १. ग्रा० प्रती छस्संठा० दोश्राणु ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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