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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तेजा-क०-ओरालि अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-णिमि० णि. अणंतगुणभ०। उज्जी० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं समचदुरभंगो-चदुसंठा०-पंचसंघ०-पसत्थ०-सुभगसुस्सर-आदें।
६७. हुंड० ज०० तिरिक्व०-मणुस०-पंचजादि छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०. तस०-थावरादिदसयुगल. सिया० । तं तु । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्यापसत्थ०४अगु०-उप०-णिमि० णि० अणंतगुणब्भ० । ओरालि अंगो०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो. सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं हुंड० मंगो अथिरादिपंच०। ओरालि० अंगो० तिरिक्खोघं ।
८. असंपत्त० ज० बं० दोगदि-चदुजादि--छस्संठाण--दोआणु०---दोविहा०पज्जत्तापज्जत्त०---थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । सेसं हुंड भंगो। अप्पसत्थ०४उप० णिरयभंगो०।
६६. पर० ज० बं० एइंदि०-ओरालि०--तेजा०-क०-हुंड०-पसत्थापसत्थ०४-- तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-यावर०-मुहम०--पज्जत-साधार-दूभग०-अणादें--अजस०शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क और निर्माणका नियमसे वन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है नो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार समचतुरस्त्रसंस्थानके समान चार संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६७. हुण्डकसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, पाँच जाति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और त्रस-स्थावर आदि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छहस्थान पतित वृद्धिरूप होता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार हण्डसंस्थानके समान अस्थिर आदि पाँचकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। औदारिक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सनिकर्ष सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है।
६. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, चार जाति, छह संस्थान, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, पर्याप्त, अपर्यात और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग हुण्ड संस्थानके समान है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका भङ्ग नारकियोंके समान है।
६६. परघातके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति और
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