SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Paramruwarramwwww महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १०२. बादर. ज. बं. दोगदि-पंचजादि-छस्संठा०--छस्संघ०-दोआणु०दोविहा०-तस-थावर--पज्जतापज्जत्त-पत्ते०-साधार०-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । ओरालि०अंगो०--पर०-उस्सा०--आदाउज्जो० सिया० अणतगुणब्भ० । एवं पज्जत्तपत्ते । णवरि पडिपक्खा ण बंधदि। १०३. मुहुम० ज० ब० तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड०-तिरिक्खाणु०-थावर०-दूभगअणादे०-अजस० णिय० । तं तु० । ओरालि०-तेजा-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०उप०-णिमि० णिय० अजह० अणंतगुणब्भ० । पज्जत्तापज्जत-पत्य-साधार०-थिराथिरसुभासुभ० सिया० । तं तु० । एवं साधार० । १०४. अपज्ज० ज० बं० दोगदि-पंचजादि-असंप०-दोआणु०-तस०-थावर-बादरमुहुम-पत्तेय-साधार० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा०--क०-पसत्थापसत्थ०४ १०२. बादर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर. तैजसशरीर. कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छवास, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार पर्याप्त और प्रत्येककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता। १०३. सूक्ष्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुभंग, अनादेय और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, णका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १०४. अपर्याप्तके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, पाँच जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक और साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, १. श्रा० प्रतौ णं बंधदि इति पाटः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy