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बंधसणिया सपरूवणा
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अगु०
०- उप०-- णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । हुंड० -- अथिरादिपंच णिय० । तं तु० । ओरालि० अंगो० सिया० अनंतगुणब्भ० ।
१०५. थिर० ज० बं० दोगदि - पंचजादि वस्संठा ० छस्संघ० - दोआणु० दोविहा०तस-थावर-बादर- मुहुम-पत्तेय-साधारण-सुभगादिपंचयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि०तेजा०- क०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु०४ - णिमि० णि० अणतगुणब्भ० । ओरालि० अंगो०आदाउज्जो सिया० अनंतगुणब्भ० । पज्जत्त० णि० । तं तु० । एवं सुभ-जस० । वरि जस० सुहुम--साधारणं वज्ज । एवं सव्वअपज्जत्तयाणं सव्वविगलिंदि ० -- पुढ०आउ०-- वणफदिपत्तेय-वणफदि-णियोदाणं च । तेज- वाऊणं पि तं चैव । णवरि तिरिक्खं ० - तिरिक्खाणु ० --णीचा० धुवं कादव्वं । मणुस०-- मणुसाणु० --उच्चा० वज्ज । वरि अप्पसत्थ०४ - उप० णिय० । तं तु० । सव्वएइंदियाणं पि तं चैव । णवरि तिरिक्खगदि ० ३ ते ०भंगो । अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० तिरिक्ख० -- तिरिक्खाणु०
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अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । हुण्ड संस्थान और अस्थिर आदि पाँचका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । औदारिक आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है ।
१०५. स्थिर प्रकृति के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक, साधारण और शुभ आदि पाँच युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। श्रदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतक कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पर्याप्तका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका सूक्ष्म और साधारणको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् तिर्यच अपर्याप्तकों के समान सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंके भी यही सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीच गोत्रको ध्रुव करना चाहिए। तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी और विशेषता है कि अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सब एकेन्द्रियों के भी यही सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यचगतित्रिकका भङ्ग अग्निकायिक जीवोंके समान है । तथा अप्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध
१. ता० प्रतौ तिरिक्ख० ३ इति पाठः ।
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