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________________ कालपरूषणा २१ ४०४. असण्णीसु पंचणाo-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-पंचिं०तेजा०- [क०-] ओरा०अंगो०-पसत्थापसत्य०४-अगु०४-आदाव-तस४-णिमि०पंचंत० ज० खेत०, अज० सव्वलो । दोआउ०-वेउब्वियछक्कं ज० अज० खेतः । साददंडओ ओघो। मणुसाउ० किण्णभंगो। तिरिक्खगदितिग-ओरा०-उज्जो तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभगो । एवं फोसणं समत्तं । २१. कालपरूवणा ४०५. कालं दुविधं-जह० उक्क० । उक्क० पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० अतः स्वस्थान विहारादिककी अपेक्षा इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन प्रधान होनेसे यह कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । देवोंमें सहस्रार कल्प तक मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले सासादन जीवोंके भी देवगतिचतुष्कका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । देवायुका जघन्य अनुभागबन्ध तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध सातवें नरकके नारकी करते हैं। अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध नीचे पाँच व ऊपर सात कुल बारह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीव भी करते लए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राज और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट है। ४०४. असंक्षियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु और वैक्रियिक छहके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। तिर्यश्चगतित्रिक, औदारिकशरीर और उद्योतका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध पश्चन्द्रिय असंही करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। एकेन्द्रिय सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । शेष कथन सुगम है। इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ। २१. कालपरूपणा ४०५. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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