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________________ ३६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पसत्य०४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय० । तं तु० । उज्जो ओरालियमंगो०। ७३. अप्पसत्थवि० ज० बं० णिरय०-मणुस०-३जादि०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-थिरादिछयु० सिया० । तं तु० । तिरिक्व०-पंचिंदि०-दोसरी०-दोअंगो०-तिरिक्वाणु०-उज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ०। तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४तस०४-णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ० । एवं दुस्सर० । ७४. मुहुम० ज० बं० तिरिक्ख०-ओरालि०--तेजा०--क०-पसत्यापसत्थ०४तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-णिमि० णि० अणंतगुणब्भ० । एइंदि०-हुंड०-थावर०-दूभ०अणादे०-अजस० णिय। तं तु० । पर०-उस्सा-पज्जत्त०-पचे० सिया० अर्णतगुणब्भ० । अपज्ज०-साधा०-थिराथिर०-सुभासुभ० सिया० । तं तु० । एवं साधार० । ____७५. अपज्ज० ज० बं० तिरिक्वं०-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-तिरिक्व०-तस०कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । उद्योतका भङ्ग औदारिकशरीरके समान है। ७३. अप्रशस्त विहायोगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, मनुष्यगति, तीन जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ७४. सूक्ष्मप्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क; तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और अयशाकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अपर्याप्त, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार साधारण प्रकृतिकी मुख्यतासे जानना चाहिए। ७५. अपर्याप्त प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय १. श्रा० प्रतौ सुभासुभासिया०तं तु०तिरिक्व. इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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