________________
बंधसण्णियासपरूवणा
३५
७०. असंप० ज० बं० तिरिक्ख ० - पंचिंदि० - तिरिक्खाणु० ०- पर० - उस्सा ० - उज्जो ०पज्ज० सिया० अनंतगुणन्भ० । मणुसगदि तिण्णिजादि संठी० मणुसाणु० - दोविहा अपज्ज० - थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि० - तेजा ० क० - ओरालि० अंगो०पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - उप० -तस० चादर - पत्ते ० णिमि० णिय० अनंतगुणभ० ।
७१. अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० देवगदि-पंचिंदि० वेडव्वि०-तेजा० - क० - समचदु०-वेडव्वि ० अंगो०-पसत्थवण्ण०४ - देवाणु० - अगु०३ - पसत्थ० - तस ०४ - थिरादिछ०णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । आहारदुगं तित्थय० सिया० अनंतगुणब्भ० । अप्पसत्थगंध-रस-पस्स० - उपे० णि० । तं तु० । एवं अप्पसत्थगंध-रस-पस्स ० - उप० । यथा गदी तथा आणुपुवी ।
७२. आदाव० ज० वं० तिरिक्ख० - एइंदि० - हुंड० - अप्पसत्थवण्ण ०४ - तिरिक्खाणु ० उप० - थावर ०- अथिरादिपंच० णिय० अनंतगुणब्भ० । ओरालि० - तेजा ०
० क ०
--
तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
७०. सम्प्राप्ता पाटिका संहननके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्च ेन्द्रिय जाति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, उद्योत और पर्याप्तका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति, तीन जाति, छह संस्थान, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, अपर्याप्त और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है | यदि जघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । दारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, वादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है ।
T
७१. प्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्च ेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छुह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । श्राहारकद्विक और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । अप्रशस्त गन्ध, अप्रशस्त रस, प्रशस्त वर्ण और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है त वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार अप्रशस्त गन्ध, रस व स्पर्श और उपवातकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। गतियोंकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कह आये हैं उसी प्रकार पूर्वियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
. ७२. आतपके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। श्रदारिकशरीर, तेजसशरीर,
१. श्रा० प्रतौ छसंघ० इति पाठः । २. ता० प्रती अप्पसत्थगंधस्स पस० उप० इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org