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________________ ३८८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हिदि ति । सादा०-मणुसग०-देवग०-पंचिं०-पंचसरीर-समचदु०-तिण्णिअंगो०-वञ्जरि०पसत्थ०४-दोआणु०-अगु०-पर०-उस्सा०-आदाउञ्जो०-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ'णिमि०-तित्थ०-उच्चा० सव्वत्थोवा उक्कस्सियाए द्विदीए अणुभागबंधज्झवसाण । समऊणाए हिदीए अणुभा० विसे । विसमऊणाए द्विदीए अणुभा० विसे० । तिसमऊणाए द्विदीए अणुभा० विसे । एवं विसेसाधियाणि विसेसाधियाणि याव जहणियाए हिदि त्ति । चदुण्णं आउगाणं सव्वत्थोवा जहणियाए हिदीए अणुभा० । विदियाए द्विदीए अणुभा० असंखेजगुणाणि । तदियाए द्विदीए अणुभा० असंखेजगुणाणि । एवं असं०गु० असं०गु० याव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं एदेण बीजेण याव अणाहारए त्ति णेदव्वं ।। एवं अणंतरोवणिधा समत्ता । ६४७. परंपरोवणिधाए मदियावरणस्स जहणियाए हिदीए अणुभागबंधज्झवसाणहाणेहितो तदो पलिदोव० असंखेजदिभागं गंतूण दुगुणवड्डिदा । ए [वं दुगुणवड्डिदा] दुगुणवड्डिदा याव उक्कस्सियाए हिदि त्ति । एगहिदिअणुभाग बंधज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतराणि असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणाट्ठिदिअणुभागबंधज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि अंगुलवग्गमूलच्छेदणयस्स असंखेजदिभागो। णाणाडिदिअणुभा०विशेष अधिक अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, तीन आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक है। इनसे एक समय कम स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इनसे तो समय कम स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इनसे तीन समय कम स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। प्रकार जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं। चार आयुओंकी जघन्य स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक है। इनसे दूसरी स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे तीसरी स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान है। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। ६४७. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा मतिज्ञानावरणको जघन्य स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्प जाने पर वे दूने होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक दूने दूने अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान जान चाहिए। एकस्थितिअनुभागबन्धाध्यवसानाद्वगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं । नानास्थितिअनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानि स्थानान्तर अङ्गुलके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । नानास्थिति १. ता. आ. प्रत्योः पसत्थ०४ तस०४ थिरा दिछ० इति पाटः । २. आ० प्रती एगठिदि ति अणुभाग- इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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