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________________ ३८७ द्विदिसमुदाहारो डिदिसमुदाहारो पमाणाणुगमो ६४५. हिदिसमुदाहारे ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि-पमाणाणुगमो सेढिपरूवणाणुगमो त्ति । पमाणाणुगमो दुवि० । ओघे० मदियावरणस्स जहणियाए हिदीए असंखेजा लोगा अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि । विदियाए द्विदीए असंखेजा लोगा अणुभाग० । तदियाए हिदीए असंखेजा लोगा अणुभा० । एवं असंखेज्जा लोगा असंखेजा लोगा एवं याव उक्कस्सियाए द्विदि त्ति । एवं अप्पसत्थाणं । पसत्थाणं पगदीणं विवरीदं णेदव्वं । एवं याव अणाहारए ति णेदव्वं । एवं पमाणाणुगमं समत्तं सेढिपरूवणा ६४६. सेढिपरूवणाणुगमो दुविहो-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा च । अणंतरोवणिधाए दुवि० । ओधे० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०णिरय-तिरिक्ख०-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०४-दोआणु०-उप०'-अप्पसत्थ०-थावर०-सुहुम०-अपज०-साधार०२-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० एदेसिं सव्वत्थोवा जहण्णियाए द्विदीए अणुभा० । विदियाए द्विदीए अणुभा० विसे । तदीए हिदीए अणुभा० विसे । एवं विसेसाधियाणि विसेसाधियाणि याव उक्कस्सियाए स्थितिसमुदाहार ६४५. स्थितिसमुदाहारका प्रकरण है। उसके विषयमें ये दो अनुयोगद्वार होते है - प्रमाणानुगम और श्रेणिप्ररूपणानुगम। प्रमाणानुगम दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मतिज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। द्वितीय स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। तृतीय स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त प्रत्येक स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है । इस प्रकार अप्रशस्त प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिये । तथा प्रशस्त प्रकृतियों के विषयमें विपरीत क्रमसे ले जाना चाहिए । इस प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ। श्रेणिप्ररूपणा ६४६. श्रेणिप्ररूपणानुगम दो प्रकारका है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नरकगति, तिर्यश्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायं गति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक है। इनसे दूसरी स्थितिमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इनसे तीसरी स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक विशेष अधिक १. आ० प्रतौ अप्पसत्थ०४ आदाउजो० उप० इति पाठः । २. ता. प्रतौ सादा० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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