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________________ पदणिक्खेवे सामित्तं ३२९ हाणी कस्स ? अण्ण० सत्तमाए पुढवीए णेरइगस्स मिच्छादिट्ठिस्स सव्वाहि पज० पजत्तग० तप्पाऔग्गउक्कस्सिगादो विसोधीदो पडिभग्गो तप्पाऔग्गजहण्णए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उकस्सगमवट्ठाणं । ५६५. आदेसेण णेरइएसु पंचणा० - णवदंस० - असाद० - मिच्छ० - सोलसक०पंचणोक०-तिरिक्ख ०-हुंड० - असंपत्त ० - अप्पसत्थवण्ण०४ - तिरिक्खाणु० - उप० - अप्प - सत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा ० - पंचंत० उक० वड्डी क० ? यो चदुट्ठा०यवमज्झस्स उवरिं अंतोकोडा कोडिट्ठिदिं बंधमाणो अंतोमुहुत्तं अनंतगुणाए सेढीए वडिदूण उक्कस्सगं दाहं गदो तदो उक्क० अणुभागं पबंधो तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी कस्स ? यो उक० अणु० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पा० जहण्णए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । साद० - मणुस ० - पंचिंदि० - ओरा० -तेजा०समच० - ओरा० अंगो० – वजरि० - पसत्थ ०४ - मणुसाणु ० - अगु०३ -- पसत्थ ० --तस०४थिरादिछ०-णिमि०-तित्थ० उच्चा० उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च ओघं मणुसगदिभंगो । इत्थ० - पुरिस०-दो आउ० चदुसंठा० - चंदुसंघ० -उजो० ओघभंगो । हस्स -रदि० इत्थवेदभंगो । [ एवं ] सत्तमाए । उवरिमासु छसु उजो० तिरिक्खाउ भंगो । सेसमेसेव' । ०-क० स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? मिथ्यादृष्टि और सब पर्याप्तियों से पर्याप्त जो अन्यतर सातवीं पृथिवीका नारकी जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है और वही तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । - ५६५. आदेशसे नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, अप्रशस्तवर्णचतुष्क, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाला जो जीव अन्तर्मुहूर्त तक अनन्तगुणित श्रेणिक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ उत्कृष्ट दाइको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामीका भङ्ग ओघसे मनुष्यगतिके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, चार संस्थान, चार संहनन और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है । हास्य और रतिका भङ्ग स्त्रीवेद के समान है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । पहलेकी छह पृथिवियों में उद्योतका भङ्ग तिर्यश्वायुके समान है । शेष पूर्वोक्त प्रकार ही है । १. श्र० प्रतौ सेसमेवमेव इति पाठः । ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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