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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६६. तिरिक्वेसु पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०णिरय०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत. तिण्णि वि णेरइयभंगो। सादा०-देवग०-पसत्थसत्तावीसं उच्चा० तिणि वि ओरइयसादभंगो । इत्थि०-पुरिस-हस्स-रदि-तिरिक्ख०-चदुजादि-चदुसंठा०-पंचसं०-तिरिक्खाणु०थावरादि०४ ओघं इत्थिभंगो। चदुआउ०-आदावं ओघं। मणुसगदिपंचग-उजो० तिरिक्खाउभंगो। अथवा बादरतेउ०-वाउ० उजो० उक्क० वड्डि-हाणि-अवहाणं यदि कीरदि तेसिं सादभंगो तिण्णि वि । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ । णवरि' उजो० तिरिक्खाउभंगो।
५६७. पंचिंदि तिरि०अप० पंचणा०-णवदंस०-असादा-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-तिरिक्ख०- एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावर०४अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंत० उक्क० वड्डी क. ? यो तप्पाओग्गजह०संकिलेसादो उक्क० संकिलेसं गदो तदो उक्क० अणुभा० बंधो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स० ? यो उक्क० अणुभा० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तस्स उक्क. हाणी। तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । सादा०-मणुस-पंचिं०-ओरा०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरा० अंगो०-वजरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा०
५६६. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके तीनों ही पदोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। सातावेदनीय एक, देवगति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रके तीनों ही पदोंका भङ्ग नारकियोंके सातावेदनीयके समान है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यश्चगति, चार जाति, चार संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारका भङ्ग ओघसे स्त्रीवेदके समान है। चार आयु और आतपका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिपश्चक और उद्योतका भङ्ग तिर्यश्चायुके समान है। अथवा बादर अनिकायिक और बादर वायुकायिक जीव उद्योतकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानको यदि करता है,तो इनके तीनों ही पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इसी प्रकार पश्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें उद्योतका भङ्ग तिर्यश्चायुके समान है।
५६७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर चतुष्क, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभान हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क,
१. ता० प्रतौ यदि किरे ( कोर) दि तेसि पि सादभंगो। तिण्णि वि एवं पंचिंदियतिरिख । ३णवरि इति पाटः।
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