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________________ २६४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवत्त ० ज० अंतो०, उ० ऍक्तीसं० सादि० । अवहि० ओघं । णीचा० तिण्णिपदा० णबुंसगभंगो। अवत्त० ओघं।। ४७७. विभंगे पंचणा०--णवदंस -मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु०-तेजा०-०वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि. ज० ए०, उ० तेंतीसं० दे०। सादासाद०--सत्तणोक०-तिरिक्व०-पंचिं०-छस्संठा० ओरा०अंगो०--छस्संघ०-तिरिक्खाणु०--उज्जो०-दोवि०--तसं०-थिरादिछयु०--णीचा. तिण्णिप० णाणाभंगो । अवत० ज० उ० अंतो०। [ओरा०] परं०-उस्सास-बादरपज्जा-पत्ते० तिण्णिपदा णाणाभंगो । अवत्त० णत्थि अंतरं । दोआउ०-वेउव्वि०छ०तिण्णिजादि-सुहुम०-अप०-साधा. मणभंगो । दोआउ० णिरयभंगो । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० दे। अवत्त० सादभंगो। एइंदि०-आदाव-थावर० भुज०-अप्प०-अवत्त० सादभंगो । अवहि० ज० ए०', उ० बेसाग० सादि। और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। अवस्थित पदका अन्तर ओघके समान है। नीचगोत्रके तीन पदोंका अन्तर नपुंसकवेदके समान है। अवक्तव्य पदका अन्तर ओषके समान है। ४७७. विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानाबरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, तियश्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, छह संस्थान, औदारिक आलोपाङ्ग. छह संहनन, तिर्यश्वगत्यानपर्वी. उद्योत. दो विहायोगति. त्रस. स्थिर आदि छह युगल और नीचगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। औदारिकशरीर, परघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। दो आयु, वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवक्तव्यपदका अन्तर सातावेदनीयके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके भजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । मत. १. ता० श्रा० प्रत्योः अंतो० अवहि. ज. ए. अंतो० अवहि. ज.ए. उ. तेतीसं इति पाठः । २. श्रा० प्रती दो विपदा तस.इति पाठः। ३. ता.पा. प्रत्योः अंतो० मिन्छ० पर. इति पाठः। ४. श्रा. प्रतौ अवत्त. ज. ए.इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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