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________________ खेत्तपरूवणा १४३ अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार०-अणाहारग ति। ३३६. एइंदि० पंचणा०-णवदंस०-असादा०--मिच्छ०-सोलसक०--सत्तणोक०तिरिक्ख०--एइंदि०--हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०-थावरादि४-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० अणु० सव्वलोगे। दोआउ०-मणुस०--मणुसाणु०-उच्चा० ओघं । सेसाणं उ० लोग० संखे, अणु० सव्वलोगे। क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शन, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ-नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छहका असंज्ञी आदि, आहारकद्विकका अप्रमत्तसंयत और तीर्थकरका सम्यग्दृष्टि जीव बन्ध करते हैं। इन जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेसे इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। मनुष्यायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनका क्षेत्र तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है ही, परन्तु मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है, क्योंकि एकेन्द्रियादि सभी जीव इसका बन्ध करनेवाले होते हए भी वे स्वल्प हैं। उन जीवोंके क्षेत्रका योग लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, इसलिए मनुष्यायुकी अपेक्षा भी यह क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। अब रही शेष प्रकृतियाँ सो उनके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध सामान्यतः संज्ञी पश्चन्द्रिय जीव करते हैं और इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका वन्ध एकेन्द्रियादि व करते हैं, इसलिए यह सर्वलोक कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ कही हैं उनमें यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनको अोधके समान कहा है। ___३३६. एकेन्द्रियोंमें, पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भंग अोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोक संख्यातवें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अन्यतर यथायोग्य संक्लेश युक्त एकेन्द्रिय जीव करते हैं और ये सर्व लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का सर्व लोक क्षेत्र कहा है। दो आयु, मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका भंग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक बादर पृथिवीकायिक, वादर जलकायिक और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हैं और इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा एकेन्द्रिय जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। ओघसे इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण ही कहा है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनमेंसे प्रशस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव करते हैं और जो एकेन्द्रिय सम्बन्धी न होकर अन्य प्रकृतियाँ हैं, उनके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध अन्यतर करते हुए वे १. ता० श्रा० प्रत्योः सबलोगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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