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________________ पदणिक्खेवे सामित्तं ३३६ जह० पदिदो तस्स उक० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवद्वाणं । देवगदि ०५ किण्णभंगो । णवरि काऊए तित्थयरं णिरयभंगो । सेसं आउगादीणं ओघादो सादव्वं । ५८२. तेऊए पढमदंडओ सोधम्मभंगो । साद० उक्क० वड्डी कस्स ? यो तप्पा ०जहणगादो विसोधीदो उक्कस्सगं विसोधिं गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उक्क० वड्डी । उ० हाणी क० ? यो उक्क० अणुभा० मदो देवो जादो तदो तप्पा ओग्गजह • पडिदो तस्स उक्क हाणी । अवद्वाणं ओघं । पंचिं० तेजा० क० समचदु० -पसत्थव ०४अगु०३ - पसत्थ०-तस०४ - थिरादिछ० - णिमि० - तित्थ० उच्चा० सादभंगो | देवग दि०उक्क० परिहारभंगो । सेसं सोधम्मभंगो । एवं पम्माए वि । णवरि पढमदंडओ सहस्सारभंगो । उज्जो० तिरिक्खाउभंगो । सुक्काए खविगाणं ओघं । पढमदंडगादि ० आणदभंगो । 1 1 ५८३. भवसि० ओघं । अब्भवसि ० पढमदंडओ ओघं । साददंडओ णिरयभंगो । पसत्थाणं कादव्वं । णवरि चदुगदि० सव्वविद्धो ति । उज्जो० सादभंगो । से ओघं । जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । देवगतिपञ्चकका भङ्गः कृष्णलेश्या के समान है । इतनी विशेषता है कि कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है । शेष आयु आदिका भङ्ग ओघके अनुसार साध लेना चाहिए । ५८२. पीतलेश्यामें प्रथम दण्डक सौधर्मकल्पके समान है । सातावेदनीयकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जिसने तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धि से उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव मर कर देव हुआ और तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है । पवेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । देवगतिकी उत्कृष्ट वृद्धिका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। शेष भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डक सहस्रारकल्पके समान है। तथा उद्योतका भङ्ग तिर्यश्वायुके समान है । शुक्ललेश्या में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। प्रथम दण्डक आदिका भङ्ग आनतकल्पके समान है। ५८३. भव्योंमें ओघके समान भङ्ग है । अभव्यों में प्रथम दण्डक ओघके समान है । सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार सब प्रशस्त प्रकृतियोंका कहना चाहिए | इतनी विशेषता है कि चारगतिके सर्वविशुद्ध जीवके कहना चाहिए । उद्योतका भंग सातावेदनीयके समान है। शेष भंग ओघके समान है । १. आ. प्रतौ देवगदि ०५ णवरि इति पाठः । २ . प्रतौ णिरयभंगो । किण्णभंगो । सेसं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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