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________________ बंधसणियासपरूवणा वज्ज । देवगदि० ज० बं० पंचिं०-वेउव्वि०--तेजा०-क०-समचदु०-वेउवि०अंगो०पसत्थ०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-मुभग-मुस्सर-आदें-णिमि० णि० । तं तु० । अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर- असुभ-अजस० णिय० अणंतगुणब्भ० । तित्थ. सिया। तं तु० । एवं देवगदिआदीओ तप्पाऑग्गाओ तित्थयरं च ऍकमेकस्स । तं तु० । अप्पसत्थ०४-उप० ओघं । १२८. थिर० ज० बं० देवगदिसंजुत्ताणं पसत्थापसत्थाणं पगदीणं णिय० अणंतगुणब्भ० ।सुभासुभ-जस०-अजस० सिया। तंतु०। तित्थ सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं अथिर-सुभ-असुभ-जस०-अजस०। १२६. कम्मइ० सत्तण्णं कम्माणं देवोघभंगो । तिरिक्ख०-मणुसग०-चदुजादिछस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थावरादि४-थिरादिछयुग. ओघं । देवगदिष्ट ओरालियमिस्स०भंगो । पंचिदि० ज० बं० तिरि०---हुंड०-असंप०.-अप्पसत्थ०४ समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर,कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर. आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य का भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तत्प्रायोग्य देवगति आदि और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका यथासम्भव बन्ध करता है। वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका भङ्ग ओघके समान है। १२८. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति संयुक्त प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश:कीर्ति और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए। १२६. कार्मणकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग ओघके समान है। देवगति चतुष्कका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। पश्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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