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________________ ५८ wwwwwwwwwwww महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिण्णियुग० पंचिंदि तिरि०अपज्जत्तभंगो । णवरि तिरिवख०--देवगदि-वेवि० ओरालि०-वेउवि०अंगो०-दोआणु०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ०। १२६. वेउव्वियकायजोगी सत्तण्णं कम्माणं देवभंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० णिरयोघं । मणुस०--मणुसाणु० देवोघभंगो। एइंदि०--थावर० देवोघभंगो। णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० णिय. अणंतगुणब्भ० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-तस० णिरयोघं । ओरालि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०. अथिरादिपंच० णि० अणंतगुणभ० । एइंदि०--असंप०--अप्पसत्थ०-थावर-दुस्सर० सिया० अणंतगुणब्भ० । पंचिंदि०--ओरालि०अंगो०--आदाउज्जो०--तस० सिया० । तं तु० । तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णि । तं तु० । एवं तेजइगादीणं ऍकमेकस्स । तं तु० । सेसाणं देवोघं । एवं वेव्वियमि० । १२७. आहार-आहारमि० सत्तण्णं कम्माणं अणुदिसभंगो । णवरि अटक. होता है । स्थिर आदि तीन युगलोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यह तिर्यश्चगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, दो भानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। १२६. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी का भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यह तिर्यश्चगति और तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और उसका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। औदारिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, पातप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका' भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्ति, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु ह जघन्य अनभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तैजसशरीर आदि प्रकृतियोंकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमें से किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रक्रतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। १२७. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोका भङ्ग अनुदिशके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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