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________________ २५८ महाबंधे अणुभागधाहियारे णवरि मिच्छ० अवत्त० णत्थि अंतरं । एवं वेउव्वियमि०-आहारमि० । ४७१. वेउवि०-आहार० धुवियाणं तिण्णिप० ज० ए०, उ. अंतो० । सेसाणं मणजोगिभंगो । कम्मइ० सन्चपगदीणं सव्वप० णत्थि अंतरं । णवरि अवडि. ज० उ० ए०। ४७२. इत्थिवे. पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० पलि०सदपु० । थीण०३-मिच्छ०-अवंताणु०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पणवण्णं पलि० दे० । अवहि०-अवत्त० णाणाभंगो। णवर अवत्त ० ज० अंतो० । णिहा-पयला-भय-दु०-तेजाक०-वण्ण०४-अगु०-उप०. णिमि० तिण्णिप० णाणाभंगो। अवत्त० णत्थि अंतरं । सादादिदंडओ अढकसा०दंडओ सव्वपदा ओघं । णवरि कायहिदी भाणिदव्वा । इत्थि०-णवूस०-तिरिक्व०एइंदि०-पंचसंठा०--पंचसंघ०-तिरिक्वाणु०-आदाउज्जो०--अप्पसत्थ०--थावर०-दूभगदुस्सर-अणादें-णीचा. भुज०-अप्प० ज० ए०, अवत्त. ज. अंतो०, उ. पणवणं पलि० दे० । अवहि० णाणाभंगो। पुरिस-पंचिं०-समचदु०-पसत्थ०-तस०-सुभगजघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। ४७१. वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। ४७२. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके भजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरण ( अवस्थितपद ) के समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय आदि दण्डक और आठ कषायदण्डकके सब पदोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि कायस्थिति कहनी चाहिए । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। पुरुषवेद, पश्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, बस, सुभग, १. ता. प्रतो भवत्त व्यायाध० अवडि० (१) भंगो गवरि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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