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________________ अप्पा बहुगपरूवण २३७ पंचवचि०-- कायजोगि - ओरालि० ओघं । णवरि मणुसेसु णीचा ० -- अजस ० ऍको भाणिदव्वं । ४४७. ओरालियमि० णेरइगभंगो याव ओरा० अत० । तिरिक्खाउ० अांत ० । मणुसाउ० अनंत । तेजा० अनंत० । कम्म० अनंत० । तिरिक्ख० अनंत० । मणुस ० अनंत० । णीचा० श्रणंत० । अजस० अनंत० । असाद० अनंत० । जस०उच्चा• दो वि तु० अनंत० | साद० अनंत० । वेजव्वि० अनंत ० | देव० अनंत० । 1 ४४८, वेव्वि० - वेडव्वियमि० णिरयोघं । आहार० - आहारमि० सव्वद्वभंगो । वरि अक० णत्थि । कम्मइ० ओरालियमिस्सभंगो । इत्थ० - पुरिस० सव्वमंदाणु ० कोधसंज० । माणसंज० [ विसे० ] | मायासंज० विसे० । लोभसंज० विसे० । मणपज्ज०-दानंत० दो वि तु० अनंत० । उवरि ओघं । णवुंसगे ओघं । णवरि संजलणाए इत्थि० भंगो । अवगद० ओघं । साद० अनंत० । ४४६. कोध० [ सव्व०- ] मंदाणु० कोधसंज० । माणो विसे० । माया मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यों में नीचगोत्र और अयशःकीर्ति एकसाथ कहने चाहिए। ४४७. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें श्रदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इस स्थानके प्राप्त होने तक नारकियोंके समान भङ्ग है। इससे तिर्यञ्च युका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तिर्यगतिका 'अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे नीचगोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अयशः कीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे असातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे यशः कीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । ४४८. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सर्वार्थसिद्धि के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें आठ कषाय नहीं हैं। कार्मरणकाययोगी जीवों में श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवों के समान भङ्ग है । स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवों क्रोधसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है । इससे मानसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे मायासंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। आगे श्रघ के समान भङ्ग है । नपुंसकवेदी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनोंका भङ्ग स्त्रीवेदीके समान है । अपगतवेदी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । मात्र सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है, यहाँ तक कहना चाहिए । ४४. क्रोधकषाय में क्रोधसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे मानसंज्वलनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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