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________________ २३८ महा अणुभाग चाहियारे विसे० । लोभो बिसे० । मणपज्ज० दाणंत० दो वि तु० अनंत० । उवरि ओघं । माणे सव्वमंदाणु ० माणसंज० । मायासंज० विसे० । लोभसं० विसे० । कोधसं० अनंतगुण० । मणपज्ज० - दानंत० दो वि तु० अर्णत० । उवरि श्रघं । मायाए सव्वमंदाणु ० मायासंज० । लोभसंज० वि० । माणसंज० अनंत० । कोधसंज० अनंत० । मणपज्ज०दात० दो वि तु० अनंत० । उवरि ओघं । लोभे श्रघं । मदि० - सुद० णेरइयभंगो 1 याव मिच्छतं । उवरि ओघं । एवं विभंग० - असंज० - किण्ण-णील- काउ०- अब्भवसि ०मिच्छा ० - अस िति । आभिणि० - सुद० - ओधि० मणपज्ज० -संजद- सामाइ० - छेदो० दिं० सम्मादि ० खइग०-उवसम० ओघभंगो। णवरि सम्मत्तपाओग्गाओ संजमपाओग्गाओ च पगदीओ णादव्वाओ । परिहार० आहार०भंगो। णवरि आहारसरीर० सव्वरि अत० । सुहुमसंप० अवगद ० भंगो । संजदासंज० णेरइगभंगो याव आभिणि० - परिभो० दो वि तु० अनंत । पच्चक्खाणमाणो अनंत० । उवरि ओघं । चक्खु०- अचक्खु ० - सुक्क० भवसि० सरिण० - आहारए ति श्रघं । ४५० ते ० देवभंगो याव आभिणि० - परिभो० दो वि तु० अनंत० । पच्चअनुभाग विशेष अधिक है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे लोभसंज्वनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। आगे श्रधके समान है। मानकषाय में मानसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । आगे ओघ के समान भङ्ग है । मायाकषाय में मायासंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे मानसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। आगे ओघके समान है । लोभकषाय में के समान है । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में मिथ्यात्व के स्थान के प्राप्त होने तक नारकियोंके समान भङ्ग है । आगे ओघके समान है। इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी, असंयतः कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, अभव्य, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में जानना चाहिए । अभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में श्रधके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वप्रायोग्य और संयमप्रायोग्य प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में आहार ककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें आहारकशरीर के अनुभागको सबके ऊपर अनन्तगुणा अधिक कहना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में अपगतवेदी जीवों के समान भङ्ग है। संयतासंयत जीवों में आभिनिबोधिज्ञानावरण और परिभोगान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक नारकियों के समान भङ्ग है। इनसे प्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। आगे ओघके समान भङ्ग है । चतुदर्शनी, अचतुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । ४५०, पीतलेश्यामें अभिनिवोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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