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________________ भुजंगारबंधो २३९ ० क्वाणमाणो अनंत । कोधो विसे० । माया ० विसे० । लोभो विसे० । विरियंत० अत० । केवलणा० - केवलदं • दो वि तु० अनंत० । अपच्चक्खाणमाणो अनंत० । कधी विसे० । माया विसे० । लोभो विसे० । पचला अनंत० । णिद्दा अनंत ० । उवरि ओघं । एवं पम्माए । वेदग० ते ०भंगो। एवं सम्मामि० । सासणे रइगभंगो । अण्णी तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं अप्पा बहुगं समत्तं । एवं चदुवीसमणियोग़द्दारं समतं । भुजगारबंधो ४५१. एत्तो भुजगार बंधे त्ति तत्थ इमं अद्वपदं - जाणि एहि अणुभागफद्धगाणि बंदि अतरोसका विदविदिक्कते समए अप्पदरादो बहुदरं बंधदि ति एसो भुजगारबंधो नाम० । अप्परबंधेत्ति तत्थ इमं अट्ठपदं - जाणि एहि अणुभागफद्धगाणि बंधदि अणंतरउस्सका विदविदिक्कते समए बहुदरादो अप्पदरं बंधदि ति एस अप्परबंधो तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक देवोंके समान भङ्ग है। इनसे प्रत्याख्यानावर मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण क्रोध का अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे वीर्यान्तिरायका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे प्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण कोषका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । आगे श्रोघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पद्मलेश्या में भी जानना चाहिए। वेदकसम्यक्त्व में पीतलेश्या के समान भङ्ग है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वमें जानना चाहिए। सासादनसम्यक्त्व में नारकियों के समान भङ्ग 1 असंज्ञियों में सामान्य तिर्यों के समान भङ्ग है। अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए । भुजगारबन्ध ४५१. इससे आगे भुजगारबन्धका प्रकरण है । उसमें यह अर्थपद हैं- जो इनके अनुभाग स्पर्धकों को बांधता है, वह जब अनन्तर व्यतिक्रान्त समय में बँधनेवाले अल्पतरसे इस समय में बहुतरको बाँधता है, तब वह भुजगारबन्ध कहलाता है । अल्पतरबन्धके विषय में यह अर्थपद है - इनके जो अनुभागस्पर्धक बाँधता है, वह जब अनन्तर पिछले समय में बँधनेवाले बहुतर से १. ता० प्रतौ श्रयंत० । केवलदं० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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