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________________ २४० महाबंधे अणुभागवघाहियारे णाम । अवछिदषधे ति सत्य इमं अहपदं-जाणि एहि अणुभागफदगाणि बंधदि अणंतरओसकाविद--उस्सकाविदविदिक्कते समए तत्तियाणि चेव बंधदि ति एसो अवहिदबंधो णाम । अवत्तव्वबंधे ति तत्थ इमं अद्वपदं-अबंधादो बंधदि ति एसो अवत्तव्वबंधो णाम । एदेण अहपदेण तत्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि णादवाणि भवंति । तं जहा-समुक्त्तिणा याव अप्पाबहुगे ति । समुक्किवणाणुगमो ४५२. समुक्कितणाए दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपगदीणं अत्थि भुजगारबंधो अप्पद० अवहिद० अवत्तव्यबंधो य । एवं ओघमंगो मणुस०३-पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरा०-आभिणि-मुद०. प्रोधि०--मणपज्ज०-संजद०-चक्खु०-अचक्खु०-ओघिदं०-मुक्कले०-भवसि०-सम्मा०खइग०-उवसम०-सएिण-आहारए ति । ४५३. णेरेइएसु धुविगाणं अत्यि भुज. अप्पद० अवहि० । सेसाणं ओघभंगो। ओरालियमि०-कम्मइ०-अणोहारएसु धुवियाणं देवगदि०४-तित्थ० अवत्तन्व० णत्यि । वेउन्वि०-वेउव्वियमि० तित्थये० अवत्तव्वया णत्थि धुवियाणं च । इत्यिपुरिस०-णवंस० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत. अवतव्वगा वज्ज. तिणिपदा, views इस समयमें अल्पतरको बाँधता है, तब अल्पतरवन्ध कहलाता है। अवस्थितबन्धके विषयमें यह अर्थपद है-इनके जो अनुभाग स्पर्धक बाँधता है,वह जब अनन्तर पिछले और अगले समयमें उतने ही बाँधता है.तब वह अवस्थितबन्ध कहलाता है। प्रवक्तव्यबन्धक विषयमें यह अर्थपद हैजो अबन्धसे बन्ध करता है, वह अवक्तव्यबन्ध कहलाता है । इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। यथा-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगम ४५२. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंका भुजगारबन्ध है, अल्पतरबन्ध है, अवस्थितबन्ध है और अवक्तव्यबन्ध है। इसी प्रकार प्रोधके समान मनुष्यत्रिक, पश्चन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।' ४५३. नारकियोंमें ध्रुव प्रकृतियोंका भुजगारबन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्ध है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंका अवक्तव्यबध नहीं है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यबन्धक जीव नहीं हैं। तथा ध्रुवप्रकृतियोंके भी अवक्तव्यबन्धक जीव नहीं हैं। स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और १. ता. प्रतो वेउन्धियमि० घेउब्धियमि० (१) तित्थय इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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