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________________ १८८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३८०. पंचिंतिरिक्खअपज्जत्तएमु पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० खेत०, अज० लो० असं० सव्वलो० । सादासाद-तिरिक्ख०-एइंदि०--ओरा-तेजा.-क०--हुंड०--पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०अगु०३-थावर-मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्ते०-साधार०-थिराथिर०-सुभासुभ-दूभग-अणादे०अजस-णिमि०-णीचा० ज० अज० लो० असं० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ० विशेषार्थ-प्रथम दण्डककी प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन जिस प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंके घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकका स्वस्थान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करने पर सब लोक प्रमाण है। पाँच ज्ञानावरणादिके अजघन्य अनुभागबन्धके समय उक्त स्पर्शन सम्भव है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। आगे भी जिन प्रकृतियोंका जघन्य या अजघन्य यह स्पर्शन कहा हो, उसे इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । स्त्यानगृद्धि तीन आदिका जघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थानमें ही सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ऐशान कल्पतककी देवियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी स्त्रीवेदका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यश्चोंके पुरुषवेदका और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके नरकगति आदिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पशन कहा है । सहस्रारकल्पतकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके देवगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध और आगे तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके देवगति आदिका अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक तिर्यश्चोंके क्रमसे कुछ कम पाँच और कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले पश्चन्द्रियजाति आदिका जघन्य तथा नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले के इनका अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजू व कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। ऊपरके बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले के उद्योत और यशःकीर्तिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नार और नारक व देवोंके साथ ऊपरके बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके क्रमसे बादर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक तिर्यञ्चोंका स्पर्शन कमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजू व तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है । २८०. पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क तिश्चर्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशाकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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