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________________ फोसपरूवणा १८६ मणुस ० चदुजी ० - पंचसंठा० श्ररालि • अंगो०- छस्संघ०-- मणुसाणु ० - आदाव ०. ० दोविहा०तस० - सुभगं - दोसर ०--आदे--उ -- उच्चा० ज० अज० लो० असं० । उज्जो ०-- बादर जस० जह० अज० सत्तचों० । एवं सव्वापज्जत्तगाणं सव्वविगलिंदियाणं बादर पुढ ० - आउ०ते ० - वाड ० - पत्ते ० पज्जत्ताणं च । णवरि बादरवाऊणं यम्हि लो० असंखें० तम्हि लो० असंखेज्ज • कादव्वो । ३८१. मणुस ०३ पंचणा० णवदंस०--मिच्छ०-- सोलसक० सत्तणोक ०--तेजा०क०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु०४ - पज्जत - पत्ते ० - णिमि० पंचंत० ज० त०, अज० लो० सं० सव्वलो० । सादासाददंड पंचिदियतिरिक्खभंगो । उज्जो० ज० अर्ज सत्त और अन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्र, सुभग, दो स्वर, श्रदेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, वहाँ वायुकायिक जीवों के लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहना चाहिए । 1 विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध संज्ञी जीव सर्वविशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामोंसे करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों का स्वस्थान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण हैं । पाँच ज्ञानावरणादिका अजघन्य अनुभागबन्ध इनके हो सकता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंके जघन्य या अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ भी ऐसा ही जानना चाहिए | स्त्रीवेद आदि ऐसी प्रकृतियाँ हैं जो अधिकतर त्रसादिसम्बन्धी है, आयुका बन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय होता नहीं और आतप एकेन्द्रियसम्बन्धी होकर भी उसका उदय बादर पर्याप्त पृथिवीकायिक जीवों में होता है, इसलिए इन सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। जो ऊपर सात राजू के भीतर बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी उद्योत आदिका जघन्य और अन्य अनुभागबन्ध सम्भव है; इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । ३८१. मनुष्यत्रिक में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय और असातावेदनीयदण्डकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय १. ता०श्रा० प्रत्योः मणुस ० ३ चदुजा ० इति पाठः । २. ता०श्रा० प्रत्योः तस४ सुभग इति पाठः । ३. ता० प्रतौ ज० ज० श्रज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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