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________________ wwwwwmmarmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrramm wermirmiramama महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हस्स-रदि-चदुसंठा०-चदुसंघ०-उजो० णिरयभंगो । चदुआउ० ओघं । णवरि देवाउ. उ० ब० पंचणा०-छदसणा०-साद०-बारसक०--पंचणोक०--देवगदिअहावीस-उच्चा०पंचंत० णि. अणंतगुणही० । तित्थ० सिया० अर्णतगुणही० । अथवा पुण मिच्छादिहिस्स पि होदि तदो णादव्वा विभासा । णिरयगदि० उ०० णिरयाणु० णिः । तं तु० । सेसाओ णि. अणंतगु० । एवं णिरयाणु० । देवगदि४-तित्थय किण्ण०-. भंगो। चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ नबुंसगभंगो। उज्जोवं पढमपुढविभंगो। काऊए तित्थ० णिरयभंगो। २०८. तेऊए आभिणि दंडओ सोधम्मभंगो । साददंडओ परिहार भंगो । इत्थि०पुरिस०--हस्स-रदि-दोआउ०--चदुसंठा०--पंचसंघ० सोधम्मभंगो। देवाउ० ओघो। मणुसगदिपंचगं ओघं । एवं पम्माए वि । णवरि अप्पसत्थाणं सहस्सारभंगो णादव्यो । मुक्काए आभिणि दंडओ इत्थि०--पुरिस०--हस्स-रदि-मणुसाउ०--चदुसंठा-चदुसंघ० आणदभंगो । सेसं ओघं ।। २०६. भवसि० ओघं । अन्भवसि० आभिणि दंडओ ओघं । साद० उ० बं० पंचणा०- णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि. दण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, चार, संस्थान, चार संहनन और उद्योतका भङ्ग नारकियोंके समान है। चार आयुका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। अथवा यदि मिथ्यादृष्टिके भी होता है तो विकल्प जानना चाहिए । नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सनिकर्ष कृष्णलेश्याके समान है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नपुसक जीवोंके समान है। उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पहली पृथिवीके समान है। कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नारकियोंके समान है। २०८. पीत लेश्यामें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण दण्डकका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, दो आयु, चार संस्थान और पाँच संहननका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। देवायुका भङ्ग ओषके समान है। मनुष्यगति पश्चकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रार कल्पके समान है। शुक्ललेश्यामें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणदण्डक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यायु, चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग आनत कल्पके समान है। शेष भङ्ग ओघके समान है। २०६. भव्य जीवोंमें श्रोधके समान भङ्ग है। अभव्य जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण दण्डक ओघके समान है। सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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