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________________ फोसपरूवणा १६७ थावरादि०४ - पज्ज० -- पत्ते ० - थिराथिर -- सुभासुभ-- दूर्भाग ०--अणादें-- अजस ०० - णिमि०णीचा० ज० अज० सव्वलो ० । इत्थि० - पुरिस० - दो आउ० मणुस ० चदुंजा ० पंचसंठी०ओरालि० अंगो०--इस्संघ० मणुसाणु० - आदा ० दोविहा० -तस०-- सुभग- दोसर ०-आदें०उच्चा० ज० अज० लो० असं० । उज्जो०- बादर० - जस० मणुस ० अपज्ज० भंगो । एवं तेउ०- बाऊणं पि । णवरि वाऊणं बादरं एइंदियभंगो कादव्वो । 1 ३८६. वणफदि-णियोद० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक ०अप्पसत्थ०४- उप०-पंचंत० ज० खेत०, अज० सव्वलो० । मणुसाउ० तिरिक्खोघं । सेसाणं ज० अज० सव्वलो० । बादरणियोद--पज्जत्तापज्जत्त -- बादरपत्ते ० अपज्जत्ताणं च बादर पुढविअपज्जत्तभंगो । बादरपत्तेय० बादरपुढविभंगो । ३६०. कायजोगि० - कोधादि ०४ - अचक्खु०-भवसि ० - आहारए त्ति ओघभंगों । पूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर आदि चार, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीर्तिका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है। इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके भी कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वायुकायिक जीवोंके बादर एकेन्द्रियोंके समान स्पर्शन करना चाहिए । विशेषार्थ-व - बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त जीवोंके जिस प्रकार स्पष्टीकरण कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। जो विशेषता कही है, उसे समझ लेना चाहिए । ३८६. वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, अप्रशस्त वचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यश्वों के समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त और बादर प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान है, तथा बादर प्रत्येकशरीर जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है । विशेषार्थ - वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें बादर जीव पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध करते हुए भी सब एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय नहीं करते। श्रतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन सुगम है । ३६०. काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचतुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों में १. ता० प्रतौ मणुस० पंचसंठा० इति पाठः । २. ता० प्रतौ बरि वाणं पि वरि (?) बादर, श्रा० प्रतौ यावरि वाऊणं पि बादर इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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