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________________ १६८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे 0 ० ओरालियका ० तिरिक्खोघं । ओरालियमि० पंचणा० णवदंस० - मिच्छ०-सोलसक० णवणोक० [ओरा • अंगो०- ] अप्पसत्थ०४ - उप० - पंचंत० ज० त०, अज० सव्वलो ० | एवं आदा० । दोवेद - तिरिक्खाउ ० ०-- मणुस० पंचजा ० - वस्संठा ० - इस्संघ० - मणुसाणु०दो विहा० -तसथावरादिदसयुग०[० उच्चा० ज० अज० सव्वलो० । मणुसाउ०- - तिरिक्ख ०तिरिक्खाणु ० - उज्जो०- णीचा० तिरिक्खोघं । श्ररा० - तेजा ० ० क० पसत्थ०४ - अगु०३णिमि० ज० लो० असं ० सव्वलो०, अज० सव्वलो० | देवगदिपंच० खेत्तभंगो । ३६१. वेउव्वियका० पंचणा० णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक० - छण्णोक ००-अप्पसत्थ०४- उप०-पंचंत० ज० अ०, अज० अह-तेरह ० । दोवेद० - ओरा०-- तेजा ० क ०हुंड इ० - पसत्थ०४ - अगु० --पर० - उस्सा ० -- उज्जो ० - थिराथिर -- सुभासुभ--दूभग-अणादें ' श्रधके समान भंग है। श्रदारिककाययोगी जीवों में सामान्य तिर्यों के समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाय योगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार आतप प्रकृतिका भङ्ग जानना चाहिए। दो वेद, तिर्यश्चायु, मनुष्यगति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस-स्थावर आदि दस युगल और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायु, तिर्यञ्चगति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिपञ्चकका भङ्ग क्षेत्रके समान है । O विशेषार्थं - स्वामित्वको देखते हुए प्रथम दण्डकमें कही गईं प्रकृतियोंके व आतप प्रकृतिके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, अतः क्षेत्र के समान कहा है । तथा औदारिक मिश्रकाययोगी जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। दो वेद आदिका कोई भी मिध्यादृष्टि जीव जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। श्रदारिकशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध संज्ञी पन्द्रियों के स्वस्थान आदि और मारणान्तिक समुद्घात के समय होता है। अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । देवगतिपञ्चकका बन्ध सम्यग्दृष्टि करते हैं, अतः इनके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्र के समान कहा है। शेष कथन सुगम है । ३१. वैक्रियिककाय योगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, छह नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, और पाँच अन्तररायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णंचतुष्क, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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