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________________ पयडिसमुदाहारो णिरयाउ० असं० । देवाउ० असं० । मणुस० असं० । ओरा. असं० । मणुसाउ० असं० । तिरिक्खाउ० असं० । एवं सव्यतिरिक्खाणं। णवरि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु णाणत्तं । अजस०-णीचा० सरिसाणि । एदं णाणत्तं । यथा जोणिणीसु तथा मणुस-मणुसपञ्जत्त-मणुसिणीसु च । णवरि णाणत्तं । देवाउ० अणुभा० बहूणि । णिरयाउ० थोवाणि । ६४०. पंचिं०तिरि०अपज. सव्वबहूणि अणुभाग० मिच्छ० । सादा० असं० । जस०-उच्चा० असं० । केवलणा०-केवलदं०-विरियंत० असं० । असादा० विसे । अणंताणु०लोमे० असं० । माया. विसे । कोधे० विसे० । माणे० विसे० । एवं संजलण०४-पचक्खाण०४-अपच्चक्खाण०४ । आभिणि०-परिभो० असं०। चक्खु० असं० । सुद०-अचक्खु०-भोगंत० असं० । ओधिणा०-ओधिदं०-लाभंत. असं० । मणप०-दाणंत'. असं० । थीण विसे० । णवूस० असं० । इस्थि० असं० । पुरिस० वसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे औदारिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे तिर्यञ्चायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इसी प्रकार सब तिर्यश्चोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें नानात्व है। अयश कीर्ति और नीचगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान समान है। यही नानात्व है। जिस प्रकार योनिनी तिर्यञ्चोंमें अल्पबहुत्व है, उसी प्रकार मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। किन्नु इतना नानात्व है कि देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान बहुत हैं और नरकायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान थोड़े है।। ६४०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है । इनसे सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन है। इनसे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनोंके ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे अनन्तानुबन्धी मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इसी प्रकार संज्वलन चतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके विषयमें जानना चाहिए । आगे आभिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान दोनोंके समान होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे चक्षुदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनोंके परस्पर समान होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान दोनोंके १. आ० प्रतौ असं० । मणुस० दाणंत० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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